Saturday, August 27, 2011

'आदिवासी क्षेत्रों का विकास स्वायत्तता से ही संभव'



'आदिवासी क्षेत्रों का विकास स्वायत्तता से ही संभव'

संयुक्त राष्ट्र, जिनेवा द्वारा आदिवासी अधिकारों के प्रति विश्व स्तर पर जागरूकता के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से 9 अगस्त को 'विश्व आदिवासी दिवस' के रूप में घोषित किया गया है।
परंतु हमारे लिए ये बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि विश्व के लगभग 193 देशों में आदिवासी निवासरत है लेकिन फिर भी आज तथा उनके समस्याओं का निराकरण नहीं हो पाया है। अगर हम भारत की परिदृश्य पर नजर डाले तो यह बात निकल कर सामने आती है कि यहां आदिवासी हितों की रक्षा के लिए कई कानून बनाए गए कई योजनाएं बनाई गईं परंतु आजादी के इतने वर्षों के बाद भी देश में आदिवासियों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हो सका है। ऐसे तो कहने को सरकारी खजाने का एक बड़ा हिस्सा आदिवासी क्षेत्रों के विकास हेतु दिल्ली से निकलता है परंतु बस्तर के बीहड़ में पहुंचते-पहुंचते कितना बच पाता होगा यह बात किसी से छुपी नहीं है। भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी अपने भाषणों में इस बात का जिक्र हमेशा किया करते थे कि-दिल्ली से निकला हुआ 1 रुपया का एक चौथाई हिस्सा ही गांवों तक पहुंच पाता है और यह बात आज भी सर्वमान्य सत्य है। देश में भ्रष्टाचार इस कदर बढ़ गया है कि यह यह अंतहीन समस्या का रूप ले चुका है। इसी का परिणाम है कि देश के वयोवृध्द गांधीवादी नेता अन्ना हजारे को बार-बार सड़क पर उतरना पड़ रहा है। यह स्थिति भारत के लगभग हर क्षेत्र में है। जिसका असर भारत के आदिवासी क्षेत्रों में साफ दिखाई पड़ता है। आदिवासी क्षेत्रों के लोग मानसिक, आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक हर दृष्टि से छले जा रहे हैं। उनके विकास के नाम पर अरबों रुपए को कैसे मूर्तरूप दे पाएंगे। इसी का परिणाम है कि आज विकासशील भारत में आदिवासी समाज 50 वर्ष पीछे चला गया है, विकसित भारत और अविकसित भारत की इस खाई को पाट पाना नामुमकिन हो गया है।


यह बात गौर करने वाली है कि 80 के दशक में गोरखालैण्ड के मुद्दे को लेकर जिस प्रकार का संघर्ष,आन्दोलन और खून-खराबा चल रहा था और जिसके कारण वहां की शांति व्यवस्था और विकास चरमरा गई थी जिसे स्थायित्व दिलाने की दृष्टि से पिछले दिनों केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम की उपस्थिति में दार्जिलिंग में केन्द्र सरकार, राज्य सरकार व गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बीच त्रिपक्षीय समझौते हुए। इस समझौते के अनुसार गोरखालैण्ड प्रादेशिक प्रशासन दार्जिलिंग और उसके पर्वत क्षेत्र में स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यटन, कृषि और शहरी विकास कार्यक्रम में पूर्णरूप से स्वतंत्र होकर कार्य करेगा और इसके लिए अगले तीन साल के लिए केन्द्र सरकार 600 करोड़ की राशि मुहैया कराएगी। यह उल्लेखनीय है कि गोरखालैण्ड प्रादेशिक दार्जिलिंग क्षेत्र के विकास के स्वतंत्र रूप से कार्य करेगा, परंतु समझौते के अनुसार एक समिति का गठन करने का प्रस्ताव किया गया जिसके माध्यम से यह सुनिश्चित किया जा सके कि वहां के मूल निवासियों को समुचित प्रतिनिधित्व मिल से। यह वाकई एक साहसिक निर्णय साबित होगा इससे गोरखा मूल की आबादी वाले दार्जिलिंग के तीन सब डिवीजनों को अब प्रशासनिक और आर्थिक स्वायत्तता मिल जाएगी और उन क्षेत्र में समृध्द व विकास को गति मिलेगी। असम राज्य में भी कुछ इसी तरह की बातचीत की पहल स्थानीय नेताओं द्वारा केन्द्र सरकार के स्तर पर की जा रही है। छत्तीसगढ़ राज्य में भी इस प्रकार की सामाजिक गतिरोध समय-समय पर महसूस की जाती रही है ऐसे में पृथक बस्तर को स्वायत्तता प्रदान करने की दिशा में आगे बढ़ने से वहां निवासरत लोगों की सांस्कृतिक, आर्थिक राजनीतिक व सामाजिक विकास अगर सही मायने में हो पाएगा।

भारत देश के सर्वोच्च न्यायालय ने आदिवासी हितों को ध्यान में रखकर संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने हेतु अपने ऐतिहासिक फैसले में सौ प्रतिशत आरक्षण को असंवैधानिक मानने से इंकार कर दिया तथा गत् 5 जुलाई 2011 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के विरुध्द शुरू किए गए सलवा-जुड़ूम अभियान में आदिवासियों को विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) के तौर पर शामिल किए जाने के मामले को असंवैधानिक माना है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आदिवासियों के लिए एक बड़ी राहत के रूप में देखा जा सकता है। पांचवी अनुसूची में शामिल देश के कई राज्यों में पंचायत,नगरीय चुनावों में संविधान का पालन नहीं किया जा रहा है। निर्वाचित राज्य सरकारें आदिवासी हितों का संरक्षण न कर मूल निवासी आदिवासियों के अधिकारों का हनन करती देखी जा सकती है। संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि अनुसूचित क्षेत्रों का औद्योगीकरण करने की अनुमति संविधान नहीं देता। आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य शासन के एम.ओ.यू. को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि अनुसूचित क्षेत्र की आदिवासी भूमि पर उद्योग लगाना असंवैधानिक है। आदिवासी संरक्षण और विकास के प्रति संविधान दृढ़ संकल्पित है किंतु केन्द्र व राज्य सरकारें संसाधनों के दोहन के नाम पर लगातार औद्योगीकरण को बढ़ावा दे रही है। संविधान के अनुच्छेद 350ए में स्पष्ट निर्देश था कि प्रत्येक राज्य और उस राज्य के अंतर्गत प्रत्येक स्थानीय सत्ता भाषाई अल्पसंख्यक समूहों के बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधा जुटाएगी। किंतु आज तक आदिवासी बच्चों को उनकी भाषा में शिक्षा देने की व्यवस्था नहीं की गई जो कि चिंता का विषय है। भारत सरकार द्वारा सभी आदिवासी बाहुल राज्यों में आदिवासी लोककला, संग्रहालयों, सांस्कृतिक केन्द्रों, लोकसंगीत नाटक अकादमी तथा लोककला वीथिका की स्थापना किए जाने की आवश्यकता है, जिससे लोगों में इन विलुप्त हो रही लोककलाओं के प्रति जागरूकता पैदा हो सके तथा साथ-साथ इसका भी ख्याल रखा जाना आवश्यक है कि बड़ी तेजी से उभरते महानगरीय संस्कृति की चकाचौंध का प्रभाव इन लोकलाओं पर न पड़े। लोककलाओं को आज व्यवसाय का माध्यम बनने हेतु भी आवश्यक कदम उठाने की जरूरत है जिससे इन विधाओं से जुड़े लोककलाकारों को आजीविका के साधन उपलब्ध हो सकेंगे तभी देश का सही मायने में विकास हो पाएगा।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14(4), 16(4), 46, 47, 48(क), 49, 243(घ)(ड), 244(1), 275, 335, 338, 339, 342 तथा पांचवी अनुसूची के अनुसार अनुसूचित जनजातियों के राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक विकास जैसे कल्याणकारी योजनाओं के विशेष आरक्षण का प्रावधान तथा राज्य स्तरीय जनजातीय सलाहकार परिषद की बात कही गई है परंतु इसे अब तक लागू नहीं कर पाना वाकई सरकार के लिए चिंता का विषय है। यह सर्वविदित है कि आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध खनिज संसाधनों से सरकार को अरबों रुपए के राजस्व की प्राप्ति होती है या सीधे शब्दों में कहा जाए तो सरकार के आय के स्रोत इन आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध वन संसाधन तथा खनिज संसाधन ही हैं, परंतु इस राजस्व का कितना प्रतिशत हिस्सा उन अनुसूचित क्षेत्रों के राजनैतिक, सामाजिक व आथिक विकास में खपत किया जाता रहा है। अनुसूचित क्षेत्रों में सरकार द्वारा स्थापित उद्योग-धंधों से प्रभावित परिवारों को प्रदान की जाने वाली मुआवजा राशि की बात हो, विस्थापित परिवार के सदस्यों को नौकरी का मुद्दा हो, विस्थापित परिवार के सदस्यों के शेयर होल्डिंग तय करने की बात हो तथा अनुसूचित क्षेत्रों के विकास हेतु स्वायत्तता स्थापित करने की बात हो इन सभी मुद्दों पर सरकार को वाकई गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है, तभी देश के आदिवासियों की स्थिति में सुधार हो पाएगा।