Wednesday, July 12, 2017

शैक्षणिक परिदृश्य

भारत् में जितने बच्चे स्कूल जातें है, करीब-करीब उतने ही बच्चे स्कूल नहीं जा पातें हैं। इनमे ग्रामीणों की संख्या सबसे ज्यादा है। बच्चों के स्कूल नहीं जा पाने की सबसे बड़ी वजह गरीबी, घर से स्कूल की दुरी, बच्चों की सुरक्षा का अभाव और निजी महंगे स्कूल है। एक आंकड़े के मुताबिक भारत में 27% पांचवी तक तथा 40.6% आठवीं तक स्कूल छोड़ देते है। जिसमे से 48% बच्चे आर्थिक कारणों व् घरेलु कामों में मदद के लिए स्कूल छोड़ते हैं, 20% बच्चे पढाई रुचिकर नहीं लगती इसलिए छोड़ते हैं, 12% परिवार के पलायन के कारण स्कूल छोड़ते हैं वहीँ 5.3% बच्चे सरकारी स्कूल इसलिए छोड़ते है क्योंकि वहां पढाई अछि नहीं होती। तथा 05% बच्चे दुरी की वजह से स्कूल छोड़ते है। मानव संसाधन मंत्रालय के आंकड़े के अनुसार 1.19 करोड़ बच्चे अभी स्कूल से बहार हैं जिसमे से 74.70 लाख बच्चे हर साल बीच में ही स्कूल छोड़ देतें हैं। प्राम्भिक स्कूलों के हाल पर अगर गौर करें तो 43% स्कूल में खेल का मैदान नहीं है, 39% में चारदीवारी ही नहीं है, 31% स्कूलों में बचियों के लिए सौचालय तक नहीं है। राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण के एक रिपोर्ट के अनुसार देश में तीसरी कक्षा तक के 35 फीसदी बच्चे ठीक से सुनकर उत्तर नहीं दे पाते, 30 फीसदी बच्चे गणित के सवाल हल नहीं कर पाते हैं । वहीँ 14 फीसदी बच्चे ऐसे है जो किसी चित्र को नहीं पहचान पातें हैं। भाषा के मामले में मध्यप्रदेश के छात्रों ने व् केरल और पांडुचेरी की छात्राओ ने अच्छा प्रदर्शन किया। गणित में विशेषकर केरल की छात्राओ का प्रदर्शन बेहतर रहा। इसके बावजूद बच्चे अपनी योग्यता से निजी स्कूल के बच्चों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। जो की आने आ में एक उपलब्धि है। स्वामी विवेकानंद ने 140 वर्ष पूर्व तत्कालीन समस्याओं के समाधान के लिए जो विचार व्यक्त किये थे वे अज भी उतने ही प्रासंगिक हैं । विशेष रूप से स्वामीजी ने शिक्षा के बारे में जो चिंतन व्यक्त किया है, उनका वर्तमान शिक्षा में समावेश किया जाए या उन विचारों के आधार पर वर्तमान शिक्षा का ढांचा बनाया जाये तो देश की शिक्षा के साथ -साथ औ र भी कई समस्याएं हैं जनके समाधान तक पहुँचने में सक्षम हो सकते हैं। जीवन के लक्ष्य औ र शिक्षा के लक्ष्य में कोई अंतर नहीं होना चाहिए। हर सामान्य मनुष्य के अन्दर देवत्व औ र दानत्व दोनों ही विद्यमान होते है। उनके अन्दर विद्यमान देवत्व को जागृत करना एवं प्रकट करने में सहायता करना ही शिक्षा का कार्य है। इस सम्बन्ध में स्वामीजी ने शिक्षा क्या है व् क्या नहीं है ? दोनों सन्दर्भ में विचार व्यक्त किये हैं। " शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है जो मस्तिष्क में ठूंस दिया गया हो । शिक्षा का सार तथों का संकलन नहीं बल्कि मन की एकाग्रता प्राप्त करना है।" हमें तो ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र का निर्माण हो, मानसिक बल का विकास हो, बुद्धी का विकास हो ओर जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके । स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार- सम्पूर्ण शिक्षा तथा समस्त अध्ययन का एकमात्र उद्देश्य व्यक्तित्व को गढ़ना है। व्यक्ति का व्यक्त रूप ही व्यक्तित्व है। अब प्रश्न यह उठता है की मनुष्य बनाने वाली या व्यक्तित्व को गढ़ने वाली शिक्षा कैसी हो ? वर्तमान शिक्षा में तो जानकारियों के ढेर के अलावा बहुत कुह दिखाई नहीं देता है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है- चरित्र यानी क्या ? उन्होंने बहुत ही सरल शब्दों में समझाते हुए कहा है कि - " छोटा बालक देख-देख कर सीखता है, धीरे-धीरे वहुसकी आदत बन जाती है। लम्बे समय तक उस प्रकार की आदतों के रहने के कारण उसी प्रकार का उनका स्वाभाव बनता है वाही चरित्र है।" अच्छी आदतें ही मूल्य है। हमारी शिक्षा व्यवस्था एवं परिवारों में मूल्यों के द्वारा ही बालक अच्छे आचरण सीखता है। अतः चरित्र निर्माण हेतु घर व् पाठशाला दो का सामान दायित्व है औ र इस दायित्व को हमें भली भांति समझना होगा जिससे नए विद्यार्थियों में चरित्र का निर्माण हो सके ।