Wednesday, February 7, 2018

कलश या कलाश लोग




कलश या कलाश लोग हिन्दु कुश पर्वत शृंखला में बसने वाली एक जाती है। यह उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान के ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा राज्य के चित्राल ज़िले में रहते हैं। कलश लोग अपनी कलश भाषा बोलते हैं। कलश लोग और पड़ौस में रहने वाले अफ़ग़ानिस्तान के नूरिस्तानी लोग एक ही जाती की दो शाखाएँ हैं। नूरिस्तानी लोगों को उन्नीसवी सदी के अंत में अफ़ग़ानिस्तान के अमीर अब्दुर रहमान ख़ान ने पराजित करके मुस्लिम बनाया था जबकि बहुत से कलश लोग अभी भी अपने हिन्दू धर्म से मिलते-जुलते प्राचीन धर्म के अनुयायी हैं। अनुमान लगाया जाता है के अब इनकी जनसंख्या ६,००० के लगभग है। कलश लोग अधिकतर बुमबुरेत, रुम्बुर और बिरिर नाम की तीन घाटियों में रहते हैं और कलश भाषा में इस क्षेत्र को "कलश देश" कहा जाता है।

रायपुर। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन


रायपुर। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन सोमवार को किया गया। संगोष्ठी “भारतीय संस्कृति का वैश्विक स्वरूप एवं संचार” विषय पर आयोजित की गई। इस दौरान कार्यक्रम के मुख्यअतिथि के रूप लिथुवेनिया की गुरुमाता, संपादक इंडीजिनस ट्रेडिसन टुडे पूर्व एवं नेता प्रतिपक्ष लिथुवेनिया संसद मुख्य रूप से उपस्थित रहे। कार्यक्रम के मुख्यअतिथि के रूप में इनिया ट्रिकूनेइने गुरुमाता लिथुवेनिया ने उद्बोधन में कहा कि   विश्व में शांति और सदभाव वैदिक संस्कृति की मुख्य उद्देश्य रहे  है। चूंकि भारत वैदिक संस्कृति की जननी है जहां हम अपनी संस्कृति की मूल जड़ों की ओर लौट कर विश्व में शांति की स्थापन कर सकते हैं। श्री जोनास, संपादक इंडीजिनस ट्रेडिसन टुडे, ने अपने वक्तव्य में कहा कि लिथुवेनिया ने यूरोपियन संस्कृति के बीच अपनी धार्मिक-संस्कृति और विरासत को बनाए रखा है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता में ये समानताएँ देखने को मिलती है। कार्यक्रम के अगली कड़ी में श्री जिंटारक सोंगैला पूर्व नेता प्रतिपक्ष लिथुवेनिया संसद ने शोध-परक जानकारी देते हुए बताया कि भाषा विज्ञान की दृष्टि से भारत कि प्राचीन भाषा संस्कृत और यूरेशिया कि संस्कृति व भाषा एक दूसरे से संबद्ध है। कार्यक्रम में विशेष रूप से आमंत्रित रिटायर्ड मेजर सुरेन्द्र नारायण माथुर ने लिथुवेनिया से आए अतिथियों का परिचय कराते हुए बताया कि आज हम भारत में रहते हुए भी अपनी संस्कृति और सभ्यता भूलते जा रहे हैं पर सुदूर देश में बसे हमारे विदेशी बंधुओं ने आज भी हमारी वैदिक संस्कृति को विभिन्न रूपों में आत्मसात किए हुए हैं जिसकी छाप उनके वेष-भूषा, खानपान, तीज-त्योहार एवं देवी-देवताओं के रूप में देखने को मिलती हैं।  कार्यक्रम के अध्यक्षता कराते हुए कुलपति प्रोफेसर (डॉ.) मानसिंह परमार ने अपने उद्बोधन की शुरुआत वसुधेव- कुटुंबकम से की।  उन्होने कहाँ किभारत की  भारत कि संस्कृति में अनेक समांताए हैं जो कि विश्व-बंधुत्व व विश्व गुरु की कल्पना को पूर्ण करती है। कार्यक्रम का धन्यवाद ज्ञापन विश्वविद्यालय के कुलसचिव डॉ. अतुल तिवारी ने प्रस्तुत किया। उक्त अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का संयोजन डॉ. आशुतोष मंडावी विभागाध्यक्ष विज्ञापन एवं जनसम्पर्क अध्ययन द्वारा किया गया। कार्यक्रम का संचालन डॉ. संध्या शर्मा एवं सुश्री पूनम तिवारी द्वारा किया गया। कार्यक्रम में पंडित दीनदायल उपाध्याय शोधपीठ के अध्यक्ष श्री प्रवीण मैशेरी, माधव राव सप्रे शोधपीठ के अध्यक्षा सुश्री आशा शुक्ला के साथ ही जनसंचार एवं समाजकार्य अध्ययन विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. शहीद अली, पत्रकारिता अध्ययन विभाग के विभागाध्यक्ष श्री पंकज नयन पांडेय, इलेक्ट्रानिक अध्ययन विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. राजेंद्र मोहंती, पत्रकारिता विभाग से श्री नृपेन्द्र शर्मा  के साथ विश्वविद्यालय परिवार के समस्त शिक्षकगण, अधिकारी-कर्मचारी एवं विद्यार्थीगण आदि मुख्य रूप से उपस्थित रहे।