Wednesday, May 3, 2017

बस्तर में अब 'अकुम' की ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती!!

बस्तर की आदिम संस्कृति के विभिन्न पहलू आज भी दुनिया के लिये शोध का विषय है. बस्तर में  पहले के जन जीवन के कुछ परम्परागत उपकरण आज अपना महत्व खोते जा रहे है.बस्तर की आदिम संस्कृति में आज आधुनिकता एवं भौतिकता के कारण धीरे धीरे परम्परागत आवश्यक उपकरण अब लुप्त होते जा रहे है. हजारो वर्षो से ये  उपयोगी उपकरण , अब तो विरले ही दिखाई पड़ते है.

बस्तर का एक ऐसा ही परम्परागत उपकरण है 'अकुम' जो अब देखने को नहीं मिलता है. यह एक महत्वपूर्ण उपकरण है ज़िसकी ध्वनि दुर खडे साथी को सतर्क कर देती है. अकुम जंगली भैंस के सींग से बना आदिवासियो का एक सूचना या चेतावनी पहूँचाने का महत्वपूर्ण उपकरण है. सींग को गर्म करके चिकना बनाया जाता है. इसके नोक वाले सिरे पर एक छोटा सा छेद किया जाता है. उसमे बांस का टुकडे का छोटा सा गुटका लगाते है. फिर इसे बजाया जाता है. इसको बजाने में बहुत ताकत लगानी पड़ती है.

इसकी ध्वनि शंख के समान होती है. इसको बजाने के लिये फेफडो का मजबुत होना ज़रूरी है. आदिवासी हर्ष उल्लास के समय इसे बजाते है. इसका ज्यादा उपयोग शिकार के समय होता है. गांव में अकुम की आवाज सुनकर सभी लोग इकठ्ठा हो जाते थे. शिकार के समय, समुह में 10 - 12 लोग एक साथ परम्परागत  हथियार जैसे तीर धनुष , भाले आदि लेकर जंगल में निकलते है. तब दो तीन के समुह में सब लोग , शिकार करने के लिये बंट जाते है. इन प्रत्येक छोटे समुहो में एक व्यक्ति के पास अकुम होता है. अकुम की ध्वनि से ये एक दुसरे समुह को  सिग्नल (ईशारा) देते है. शिकार के लिये अकुम महत्वपूर्ण एवं ज़रूरी उपकरण होता था.अब बस्तर में सींग से बने अकुम का स्थान बांस से बने अकुम ने ले लिया है.

पहले बस्तर में जंगली जानवर बहुत हुआ करते थे. बस्तर में जंगली भैसे बहुत पाये जाते थे. अत्यधिक शिकार के कारण अब ये लगभग लुप्त हो चुके है.आज भी बस्तर के इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान में जंगली भैंसो के बहुत से झूंड विचरण करते है. अब बस्तर में अब पहले की तरह शिकार नहीं खेला जाता है.

ना ही अब वनभैंसो का शिकार होता है. ज़िनके सींग से अकुम बनाया जाता था. इस कारण जो अकुम पहले आदिवासियो के गले में  लटका रहता था अब यह अकुम देखने को भी नहीं मिलता है. अभुझमाड के अन्दरूनी गांवो में आज भी इन परम्परागत उपकरणो का उपयोग होता है.वहाँ के घरोें की दिवारो मे टंगे  अकुम आज भी बस्तर के शिकार खेलो की गौरव गाथाओ का स्मरण कराते है.