भारत् में जितने बच्चे स्कूल जातें है, करीब-करीब उतने ही बच्चे स्कूल नहीं जा पातें हैं। इनमे ग्रामीणों की संख्या सबसे ज्यादा है। बच्चों के स्कूल नहीं जा पाने की सबसे बड़ी वजह गरीबी, घर से स्कूल की दुरी, बच्चों की सुरक्षा का अभाव और निजी महंगे स्कूल है।
एक आंकड़े के मुताबिक भारत में 27% पांचवी तक तथा 40.6% आठवीं तक स्कूल छोड़ देते है। जिसमे से 48% बच्चे आर्थिक कारणों व् घरेलु कामों में मदद के लिए स्कूल छोड़ते हैं, 20% बच्चे पढाई रुचिकर नहीं लगती इसलिए छोड़ते हैं, 12% परिवार के पलायन के कारण स्कूल छोड़ते हैं वहीँ 5.3% बच्चे सरकारी स्कूल इसलिए छोड़ते है क्योंकि वहां पढाई अछि नहीं होती। तथा 05% बच्चे दुरी की वजह से स्कूल छोड़ते है।
मानव संसाधन मंत्रालय के आंकड़े के अनुसार 1.19 करोड़ बच्चे अभी स्कूल से बहार हैं जिसमे से 74.70 लाख बच्चे हर साल बीच में ही स्कूल छोड़ देतें हैं। प्राम्भिक स्कूलों के हाल पर अगर गौर करें तो 43% स्कूल में खेल का मैदान नहीं है, 39% में चारदीवारी ही नहीं है, 31% स्कूलों में बचियों के लिए सौचालय तक नहीं है।
राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण के एक रिपोर्ट के अनुसार देश में तीसरी कक्षा तक के 35 फीसदी बच्चे ठीक से सुनकर उत्तर नहीं दे पाते, 30 फीसदी बच्चे गणित के सवाल हल नहीं कर पाते हैं । वहीँ 14 फीसदी बच्चे ऐसे है जो किसी चित्र को नहीं पहचान पातें हैं। भाषा के मामले में मध्यप्रदेश के छात्रों ने व् केरल और पांडुचेरी की छात्राओ ने अच्छा प्रदर्शन किया। गणित में विशेषकर केरल की छात्राओ का प्रदर्शन बेहतर रहा। इसके बावजूद बच्चे अपनी योग्यता से निजी स्कूल के बच्चों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। जो की आने आ में एक उपलब्धि है।
Saturday, June 28, 2014
सरकारी स्कूलों में गुणवत्ता होना जरुरी है।
धरोहर
आकाश है तो पाताल है,
अग्नि है तो वायु है।
जल है तो धरा है,
वह ही पंचतत्व युक्त आत्मा है।।
वही है!
जिसने धरती को सूर्य के प्रताप से जलते देखा है।
वही है!
जिसने आकाश को चन्द्रमा के आगोश में लिपटते देखा है।।
वही है!
कल की बंजर धरती को आज के लहलहाते खेतों में देखा है।
वही है!
जिसने अपने मन और मेहनत को हर मिटटी में बेचा है।।
वही है!
जिसने तुम्हारी धरती को खून पसीनें से सींचा है।
वही है!
जिनके हर दिन राहों में और हर रात कंदराओं में बीता है।।
वही है!
जिसने अपने प्रेम से इस दुनिया को को जीता है।
हाँ वही है!
तुम्हारी धरोहर जिनसे तुमने जीना सीखा है।
जीना सीखा है।।
अस्तित्व
खो गया है अस्तित्व मेरा ,
खो गई है मेरी परिभाषा।
खो जाऊंगा मई भी फिर भी,
बनिराहेगी मेरी आशा।
अपने भी कुछ सपने बनते है,
सपनों से बनती है आशा।
उन सपनों पे रंगत चढ़ना,
मेरे जीवन की अभिलाषा।।
जीवन के इस समंदर में,
फंसी हुई है मेरी अभिलाषा।
हर आशा को सार्थक करना,
येही है अस्तित्व की पहली परिभाषा।।
पुकार
आवाज़ की बुलंदियों में,
दर्शकों का काफिला।
तोड़कर मुश्किलें सारी,
मिटा दो वो फासला।
भूल चलो ये मंदिर मस्जिद,
भूलकर वो सिलसिला।
भूल चुकी है दुनिया सारी,
अब कर लो तुम फैसला।
आज हमारी धरती फिर से,
लगती है वीरान मुझको।
समय नहीं है पास तुम्हारे,
मत खोना तुम हौसला।।
चंद इन्साफ
न जाने जोरों से क्यों ?
राजनीति में मच गई है कुछ हलचल।
हो गए हैं राजनैतिक नेता भी ,
अपनी राजनैतिकता में विफल।
पर क्या ? सहीं में हमारी गुहाँरे सुनने को
उनके ज़ी कतरातें हैं या फिर,
उन आशाभरी पुकारों को,
सुनकर भी अनसुनी कर जाते हैं।
सच कहिये तो हुज़ूर
हंमे उनके वो निभाए वादे
नज़र नहीं आते हैं।
क्योंकि वे उन वादों से मुकर जातें है।
पर खैर जो भी हो,
आज मेरी राय में , हम आदमी के लिए
बेशक बेंसफी है।
ज़रा देख भी लें की कतार कितनी लम्बी है,
इस बेवफाई की,
क्योंकि,
मेरी चाँद इन्साफ भी अभी बाकी है।।
(स्वरचित कविता)