Thursday, May 4, 2017

नकसलवाद को खात्मा राष्ट्रवाद से ही संभव है.

छत्‍तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित सुकमा जिले में दिनांक 24 अप्रैल 2017 को हुए घातक नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 25 जवान शहीद हो गए. छत्तीसगढ़ में हुये इस हमले के बाद नक्सलियों ने एक बार फिर अपनी कुत्सित मानसिकता  का अहसास कराया है जो की भारतीय लोकतन्त्र के लिए एक काला धब्बा है। पिछले कुछ सालों से नक्सलीयों ने हजारों की संख्या मे सीआरपीएफ के जवान ,पोलिस के जवान तथा आम ग्रामीण नागरिकों को अपना शिकार बनाया है, और पिछले कई वर्षों से सरकार को खुली चुनौती देने का काम कर रहे हैं।

      छत्तीसगढ़ के बस्तर में अब तक हुए बड़े नक्सली हमलों की अगर बात करें तो पिछले 10 साल में नक्सलियों ने कई बड़े हमलों को अंजाम दिया जिसमे हजारों की संख्या मे आम जनता व पुलिस वाले मारे गए । गत 9 जुलाई 2007 में एर्राबोर के नक्सली हमले में 23 पुलिस कर्मी शहीद हुएदिनांक  15 मार्च 2007 में बीजापुर के रानीबोदली में पुलिस के 55 जवान शहीद हुए, दिनांक  29 जून 2010 में नारायणपुर जिले के धौड़ाई में 27 जवान शहीद हुये, दिनांक 17 मई 2010 में 12 पुलिस अधिकारियों सहित 36 लोगों को नक्सली हमले मे जान गंवानी पड़ी थी, दिनांक 26 अप्रैल 2010 को बीजापुर जिले की घाटी में बारूदी सुरंग विस्फोट में 7 जवान शहीद हो गए थे, दिनांक 16 अप्रैल 2010 को ताड़मेटला में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के जवानों पर बारूदी सुरंग लगाकर विस्फोट के बाद गोलीबारी की थी जिसमें 76 जवान शहीद हुए थे, जून 2011 में दंतेवाड़ा जिले के अरनपुर थाना क्षेत्र में माओवादियों ने बारूदी सुरंग में विस्फोट कर लैंड माइन प्रोटेक्टेड व्हीकल को उड़ा दिया था, जिसमें 10 जवान शहीद हुए थे, दिनांक 12 मई 2012 को सुकमा के दूरसंचार केंद्र पर हमला, चार जवान शहीद हुये, दिनांक .25 मई 2013 को सुकमा जिले से परिवर्तन यात्रा से लौट रहे कांग्रेस नेताओं के काफिले पर जीरम घाट में घात लगाए नक्सलियों ने दरभा घाट में बारूदी सुरंग विस्फोट कर गोलीबारी कर दी थी, जिसमें 28 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था. इस घटना में छत्तीश्गढ़ विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा समेत वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल, नंद कुमार पटेल का अवसान हो गया था, दिनांक 30 मार्च 2016 को दंतेवाड़ा के मैलावाड़ा में आईईडी विस्फोट में सीआरपीएफ के सात जवान शहीद हुए थे.तथा दिनांक 11 मार्च 2017 को सुकमा जिले में इंजरम-भेज्जी मार्ग निर्माण को सुरक्षा प्रदान करने रवाना की गयी केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) 219वीं बटालियन की पार्टी से कोत्ताचेरू ग्राम में हुई मुठभेड़ में सीआरपीएफ के 12 जवान शहीद एवं तीन अन्य गंभीर रूप से जख्मी हो गए थे तथा नक्सली काफी मात्रा मे शहीद जवानों के हथियार लूटकर ले गए थे. और अभी ताजा घटनाक्रम की अगर बात करें तो दिनांक 24 अप्रैल 2017 दिन सोमवार को छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सलियों ने सीआरपीएफ जवानों पर हमला कर दिया जिसमें सीआरपीएफ के 26 जवान शहीद हो गए जो की हमारे देश के लिए वाकई दुर्भ्ग्यजनक है जो कि  अब धीरे धीरे नासूर बनता जा रहा है। अब इस नासूर को अगर सामय रहते नहीं मिटाया तो वाकई मे हमारे लोकतन्त्र के लिए संकट की स्थिति बन जाएगी।  पिछले कुछ सालों में नक्सल समस्या देश के करीब एक दर्जन से अधिक राज्यों में फैल चुकी है पश्चिम बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक उनकी गतिविधियां लगातार जारी हैं, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, यूपी, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश घोर नक्सलवाद से प्रभावित राज्य हैं।

      दिनांक 24 अप्रैल 2017 दिन सोमवार को सुकमा में हुये हमले के रिपोर्टों के मुताबिक करीब 300 नक्सलियों ने दोपहर करीब 12.30 बजे सीआरपीएफ के जवानो पर घात लगाकर हमला किया जिसमे जवानों को संभलने का मौका नहीं मिला और 26 जवान शहीद हो गए। ज्ञात हो की इस हमले के दौरान 300 नक्सलियों में करीब 70 प्रतिशत महिलाएं शामिल थीं। मिली जानकारी के मुताबिक चिंतागुफा के पास बुर्कापाल में नक्सलियों ने रोड ओपनिंग के लिए निकली सीआरपीएफ की 74वीं बटालियन पर घात लगाकर बैठे नक्सलियों ने जवानों पर फायरिंग कर दी जिसमे मौके पर शामिल जवानों ने भी फायरिंग कर नक्सलियों को मुहतोड़ जवाब दिया।  पर अब सवाल ये है की इस प्रकार की घटनाएँ आखिर कब तक चलती रहेगी या कभी थमने का नाम लेगी।


      नक्सलियों के द्वारा समय-समय किए गए इस दावे में ज़रा भी दम नहीं है कि स्थानीय आम जनता का उन्हें समर्थन प्राप्त है। आम बस्तर का नागरिक बस्तर का विकास चाहता है परंतु बस्तर के जनजाति उनके  डर व भय  के कारण ही उनका समर्थन करते हैं। नक्सली जिन संसाधनों के लिए अपनी लड़ाई का दावा करते हैं उन्हीं को वे निशाना बनाते हैं। कड़वी सचाई यह है कि आम ग्रामीण जनता व आम जनजाति समाज नक्सली-ठेकेदार-नौकरशाह की चौकड़ी का शिकार होते नज़र आते हैं। इसके  कारण ही वे आज भी वहीं हैं जहां आजादी से पहले थे। नक्सल प्रभावित इलाकों में आम आदमी नक्सली और सुरक्षा बलों की चक्की में पिस रहा है।
छत्तीश्गढ़ के बस्तर की अगर बात करे तो यह क्षेत्र हमेशा से शांत व सौम्य क्षेत्र रहा है यहाँ  का जनजीवन हमेश से बिलकुल सामान्य रहा है परंतु इस नकसलवाद ने इस शांत, सुंदर व मनोरम  क्षेत्र को रक्तरंजित क्षेत्र बना दिया है ।  छात्तिश्गढ़ के  बस्तर मे 50 के दशक में पूरी तरह शांति स्थापित थी जो की वर्ष 1973-74 तक रही परन्तु इसके बाद वहाँ व्याप्त गरीबी और अशिक्षा के कारण नक्सलवाद पनपना शुरू हुआ। वहाँ व्याप्त  गरीबी और अशिक्षा की वजह से वहाँ के पोलिस, प्रशासन व नक्सल सभी बस्तर के जनजातियों को अंकगणित की इकाइयों की तरह इस्तेमाल करने लगे और वहाँ के जनजाति व आम जनता इस लड़ाई मे पिस रहे हैं।

      ऐसी बात नहीं है कि बस्तर मे विकास के कामों कि शुरुआत ही नहीं हुई, कई बार हुई है परंतु आज के इस पड़ाव मे बस्तर कई कारणों से काफी पीछे चला गया है और जिसका नाजायज फायदा देश विरोधी ताकतों ने समय समय पर उठाया है। और इसके पीछे के सच को भी हमे जानना आवश्यक है। छातिशगढ़ राज्य एक जनजातीय बहुल राज्य है, यहा की जनजातीय जनसंख्या 32 प्रतिशत है। जिसमे विभिन्न प्रकार के जाती समूह शामिल हैं जिनकी सांस्कृतिक विशेषता अपने आप मे महत्वपूर्ण है परंतु इस सांस्कृतिक विशेषता मे पहला खतरा तब महसूस हुआ जब वर्ष 1949 में दक्षिण बस्तर में विभिन्न क्षेत्रों से बहुत से लोग आकर बसे थे जो शायद वहां की जनजातीय संस्कृति के लिए सबसे बड़ा खतरा साबित हुई. उस समय बस्तर में शक्ति के तीन प्रमुख केंद्र थे प्रथम माई दंतेश्वरी, दूसरे बस्तर के महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव तथा तीसरी वहां जनजातियों के मध्य प्रचलित घोटुल प्रथा थी. ये तीनो केंद्र जनजातीय समाज को आपस में जोड़े रखा था जो इनके आस्था के सर्वोच्च प्रतीक थे. दिनांक 25 मार्च 1966 में इन प्रतीकों में से एक प्रतीक महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव की षड़यंत्र पूर्वक गोलीबारी में हत्या की गई. श्री गनपत लाल साव जो कि महाराजा के सचिव थे उनके अनुसार ब्रिटिशर्स के द्वारा सन 1910 में बस्तर में अपनी शिक्षा व्यवस्था कायम करने कोशिश किये जिसका बस्तर में पुरजोर विरोध हुआ. उसी समय बस्तर की क्रांति के रूप में विख्यात भूमकाल आन्दोलन का भी जिक्र आता है, जो कहीं न कहीं इस विद्रोह की कड़ी से जुड़ता है।

      बस्तर क्षेत्र के तमाम समस्याओं पर अगर गौर करें तो हम यह पाते है कि शिक्षा व् स्वास्थ्य की पहुँच से दूर बस्तर के पिछड़ने के तीन बड़े कारण पुलिस, व्यापारी व् प्रशासन है. क्योंकि पुलिस व् प्रशासन के बारे में यह प्रचलन है की वे जनजातीय समाज के लोगों के घरों से डरा धमकाकर मुर्गा और दारु की मांग की जाती थी नहीं देने का खामियाज़ा भी भुगतना पड़ता था, वहीँ व्यापारी नमक के बदले वहां के आदिवासियों का जल जंगल जमीन तक हड़प लेते थे. शायद यही कारण था कि बस्तर जैसे मनोरम, शांति के टापू पर नक्सलवाद दस्तक देता नज़र आ रहा था. अगर बस्तर आज थोडा बहुत बचा है तो सरदार वल्लभ भाई पटेल की वजह से ही बचा है जो कि बस्तर स्टेट को भारत के 537 रियासत में शामिल करने में सफल रहे, अन्यथा बस्तर की बैलाडीला पहाड़ी को हैदराबाद के निज़ाम ने खरीद लिया था जिसे कोरिया के राजा के हस्तक्षेप पर ही भंजदेव ने बस्तर को बचाया था जिसका प्रमाण आज भी मौजूद हैं.

      आज बस्तर खून की होली खेल रहा ही कल तक शांति के टापू के रूप में स्थापित बस्तर में आज गोली की आवाजें गूंजने लगी है. भारत में नक्सलवाद का खत्म बस्तर के नक्सलवाद के खात्मे पर ही टिका है.  इस समय नक्सलवाद की कहर से देश के 16 प्रान्तों के लगभग 20 जिलों के 1400 गाव जूझ रहे हैं. उड़ीसा के कंधमाल में स्वामी लक्ष्मानंद के सामाजिक आंदोलन की वजह से तथा राजनंदगांव के मोहला-मानपुर क्षेत्र में सामाजिक अलख जगाने में भूमिका निभाने वाले लाल श्याम शाह की वजह से इस क्षेत्र में नक्सलवाद पुरवे मे नहीं पनप पाया जिन्होंने इन क्षेत्रों में व्यसन मुक्ति के आन्दोलन चलाये तथा शिक्षा के कई केंद्र स्थापित किये. इसी तरह जशपुर के कैलास गुफा व बागीचा के क्षेत्रों में गहिरा गुरु का योगदान महत्वपूर्ण है जिन्होंने इस क्षेत्र में शिक्षा का अलख जगाया. वर्ष 1952 में जशपुर में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना जनजातीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य, शिक्षा व सामाजिक उत्थान हेतु कार्य करने के उद्देश्य से की गई थी जो की निरंतर अभी भी जारी है. वर्ष 1966 में बस्तर के महाराजा प्रवीर चन्द्रभंजदेव की हत्या के लगभग 12 वर्ष बाद 1980 तक नक्सलवाद का कोई नामोनिशान नहीं था. उसके बाद नारायणपुर व ओरछा वर्ष 1991-92 में पहली बार ग्राम जागरण अभियान चलाया गया. 2003 में गीदम का थाना लुटा गया, युम्नर का बाजार लुटा गया जिसमे पुलिस ने 13 ग्रामीणों को जेल में दाल दिया और उन्हें उनके पास पाए गए सामान की पावती दिखाने को कहा गया और ऐसा प्रचारित किया गया की यह बाज़ार जनजाति समाज ने लुटा है. इस घटना से जनजाति समाज आहात हुआ और सामाजिक कार्यकर्ता सुखदेव तांती के नेतृत्व में लगभग 500 लोगों के साथ इन्द्रावती नदी के उस पार नक्सलियों से उनके केम्पों में मिलने पहुंचे और नक्सलियों को उसके दूसरे दिन यह बताना पड़ा कि इस घटना में जनजाति समाज का कोई हाथ नहीं है. इसके बाद लगभग 100 गांवों में ग्राम सुरक्षा समिति बनाई गई जिसने नक्सलियों को गावों से बहार का रास्ता दिखाया गया. 19 मई 2005 में बस्तर के ग्रामीणों के द्वारा इस समस्या से निपटने के लिए चल रही बैठक में नक्सलियों के द्वारा 19 लोगों की हत्या की गई इसी तरह 22 मई 2005 को 5000 ग्रामीणों की बैठक के दौरान भी हत्या के प्रयास नक्सलियों के द्वारा किया गया जिसमे ग्रामीणों के द्वारा संयुक्त रूप से यह तय किया गया की नक्सलवाद का मुकाबला सलवा जुडूमसे किया जाएगा जो की देश में इस तरह का पहला प्रयास था। सलवा जुडूम इस प्रयास से काफी संख्या में लोग जुड़ने लगे कुटरू, ताडमेटला व भैरमगढ़ से हजारों की संख्या में जनजाति समाज जुड़ने लगे. सलवा जुडूम के इस प्रयास से नक्सली बेचैन हो उठे और सलवा जुडूम के कार्यकर्ताओं पर हमले करना शुरू किये. सरकार ने जनजातियों की सुरक्षा के लिए इन क्षेत्रों में 24 केम्पों का निर्माण कराया  जिसमे 80-100 गांवों से लगभग 52000 लोग रहने आने लगे PSO व कोया कमांडो की दहसत भी लोगों में बढने लगी, नक्सलियों का नेटवर्क ध्वस्त हो गया  इससे समर्थित संगठन हैरान हुए और इसके खिलाफ षडयन्त्र कर सुप्रीम कोर्ट में 19 याचिकाएं लगाई गई. दिनांक 5 जुलाई  2011 में सुप्रीम कोर्ट ने PUCL से प्रशिक्षित सुदर्शन रेड्डी के द्वारा PSO को निरस्त करने के याचिका पर बगैर तहकीकात के सलवा जुडून के विरोध में एक आदेश था. इस निर्णय से नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विपरीत माहौल बना जो की निराशा जनक था.

      छतिशगढ़ के राजनांदगाँव जिले के मदनवाडा क्षेत्र में नक्सलियों का दखल लगभग 2004 में शुरू हुआ नक्सलियों के द्वारा  आम ग्रामीण जनता व  पढ़े लिखे युवाओं को  कई हथकंडों के माध्यम से जोड़ने का आह्वान किया कि अगर क्षेत्र का विकास चाहिए तो हमसे जुड़िये क्योंकि 2010 तक हमारी सरकार बन जाएगी इससे प्रभावित होकर कुछ लोग मई 2004 से  इस संगठन में शामिल होने लगे और 2007  से 2014 तक नक्सली दलम के  सदस्य के रूप में काम भी करने लगे।   उसी समय नक्सलियों ने ओटेकसा में 24 गांववालों के सामने 4 लोगों की डंडे से मार-मारकर हत्या कर दी गई. रजनंदगाँव में वर्ष 2007-08 में बड़ी भरी संख्या में तथा एक अनुमान के मुताबिक  लगभग 100 लोग नक्सली संगठन में भर्ती हुए, जिसमे से छात्तिश्गढ़ के लोगों को छोटे-मोटे कामों में ही उपयोग करते थे बाकी आँध्रप्रदेश व् उड़ीसा के लोग ही इसमें प्रमुख पदों पर थे. बाद में शासन के योजनाओं को सुनकर व् देखकर कुछ लोग वापिस आकर पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किये. इस तरह हम कह सकते है की नक्सली संगठन में छात्तिश्गढ़ के लोगों को डरा धमकाकर व कई प्रकार के प्रलोभन देकर शामिल किया जाता है और यही नहीं वहां के कई व्यापरियों से हजारों करोड़ की वसूली भी इन नक्सलियों के द्वारा किए जाने के प्रमाण मिले है जो की उनकी कुत्सित मानसिकता को दर्शाता है

      परंतु वर्तमान समय मे चुनौती नक्सलवाद की नहीं बल्कि माओवाद की है जिसके इस समय नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी नाम के दो धड़े कार्यरत है. उन्होंने इस विषय पर बात करते हुए बताया की कम्यूनिस्ट पार्टी की लिटिल रेड बुक में अंतर्राष्ट्रीयता के नाम से क्रांति करने की अपील की जाती है जिसके परिणाम स्वरूप भारत में छात्तिश्गढ़. महाराष्ट्र, उड़ीसा, झारखण्ड व पश्चिम बंगाल में युद्ध हो रही है. माओवाद के अनुसार राज्य उनका शस्त्रागार(QUARTER MASTER) है इसी कारण हम देखते हैं कि, माओवादी अपने शस्त्र की पूर्ति राज्यों के पुलिस थानों को लूटकर Reverse इंजीनिरिंग के माध्यम से ठीक कर उपयोग में लाते है.
     
      माओ एक ऐसे क्रांतिकारी नेता थे जो कभी किसी से नहीं मिलते थे फिर भी कानु सान्याल व् चारू मजुमदार से मिलकर उन्हें भारत में वामपंथी के दूत निरुपित किया. उन्होंने बताया कि वामपंथी Cultural Revolution के माध्यम से अपने विचारधारा को प्रतिपादित करते हैं जिनका प्रचार तंत्र बहुत सघन फैला हुआ है जिसके लिए वे World to Win नमक पत्रिका भी निकलते हैं तथा इसी कड़ी में भारत में 2001 में कोआर्डिनेशन कमिटी ऑफ़ माविस्ट पार्टी एंड ओर्गनाइज़ेसन ऑफ़ साउथ एशिया(COMPOSA) नामक संगठन स्थापित हुआ. जिसके सहयोग से 2004 में PWG का गठन हुआ जिसमे बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल व बर्मा सदस्य देश के रूप में शामिल हैं जो जन संघर्ष में विश्वास करती है फिलीपिंस में तो 1940 से माओवाद का संघर्ष जारी है. वर्ष 2002 में MLM की स्थापना हुई जिसके प्रेरक के रूप में गोंज़ालो प्रतिष्ठित हुए. 2006 में भारतीय माओवादी संगठन का सहयोग करने से नेपाल ने मना  कर दिया जिसके कारण कामरेड गणपति, कामरेड  किसनजीत ने इस्लामिक आतंकवादियों से सहयोग के लिए संपर्क स्थापित किए व 2007 से 2010 तक इस्लामिक संघर्ष से सम्बंधित संयुक्त बयांन दिए गए. वर्ष 2006 के बाद से बांग्लादेश से भी हथियार आने शुरू हो गए. अंतराष्ट्रीय माओवाद संगठन का पंचम सम्मेलन 2011 में झारखण्ड के सरंडा के जंगलों में संपन्न हुआ जिसमे बांग्लादेश, भूटान व श्रीलंका के लोग शामिल हुए तथा इन सभी देशों में एक संगठन बनाने की रणनीति बनी. भारत में माओवाद को ULFA का अच्छा सहयोग मिल रहा है, इस्लामाबाद में इस्लामिक आतंकवाद पर संघर्ष जारी है. यह समस्या एक  Socio Economic Low and Order से उत्पन्न समस्या है जिसका उद्देश्य गन के माध्यम से सत्ता में आना है जिसके लिए 2004 के बाद से इस समय तक लगभग 40 संगठन कार्य कर रहे है.  जिसमे की 2004 से अब तक विभिन्न मुठभेड़ों में 2,237 सिविलियन तथा 1200 माविस्ट मरे गए हैं. इस तरह नक्सलवादियों का संगठन देश में Kill 1 Terror 100 की विचारधारा पर कार्य करती है और लोगों में भय उत्पन्न कर लगभग 12 से 14 प्रतिशत तक की लेवी मध्यप्रदेश व् छात्तिश्गढ़ से वसूलती है, गाँव के किसानो को एक एकड़ में गांजा की खेती उगाने के लिए दबाव डालती है. इस तरह हम कह सकते है की यह विचारधारा लोगों में निरंतर भय उत्पन्न किये हुए हैं जिसे समूल नष्ट किया जाना समय की मांग है.

      पर ऐसी बात नहीं है की वर्तमान सरकार को इसकी चिंता नहीं है बल्कि छततिशगढ़ मे डॉ रमन सिंह की सरकार द्वारा नक्सली पीड़ित बच्चों के लिए कई प्रकार की योजनाए भी संचालित कर रही है जिसमे से छात्तिश्गढ़ सरकार द्वारा नक्सली प्रभावित 9वीं से 12वी तक के बच्चों के लिए विशेष शिक्षा की व्यवस्था की गई है जिसमे से हर वर्ष 7 से 10 बच्चे इंजीनिरिंग, मेडिकल तथा IIT के लिए पास होते है वहीँ अबूझमाड़ क्षेत्र में सुखराम बोरसा( MBBS) जैसे कई जनजातीय समाज के सामाजिक कार्यकर्ता जनजातीय क्षेत्रो में विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखकर मेडिकल केम्प तथा अन्य प्रकार के कैंप लगाने के लिए कई प्रकार के संघर्ष करते है जिससे उस क्षेत्र में विकास कायम हो सके. और जनजातीय क्षेत्रों में शांति की स्थापना हो सके.

      पर अभी ऐसा लागत है की बस्तर ही नहीं देश के समस्त जनजातीय बाहुल क्षेत्रों मे जनजातीय विकास  के मुद्दों को लेकर और भी अधिक काम करने की आवश्यकता है क्योंकि अगर जनजातीय समाज की गैर जंजातीय समाज से तुलना करें तो जंजातीय समाज की शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक  स्थिति काफी चिंताजंक दिखाई पड़ती है उनके बीच मे काफी असमानता है जनजातीय क्षेत्रों मे सरकार द्वारा घोषित उपबंध जैसे पेशा कानून, पाँचवी अनुसूची व छटवीं अनुसूची की स्थिति भी कुछ ठीक नहीं है । पांचवी अनुसूची में शामिल देश के कई राज्यों में पंचायत,नगरीय चुनावों में संविधान का पालन नहीं किया जा रहा है। निर्वाचित राज्य सरकारें आदिवासी हितों का संरक्षण न कर मूल निवासी जनजातियों  के अधिकारों का हनन करती देखी जा सकती है। संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि अनुसूचित क्षेत्रों का औद्योगीकरण करने की अनुमति संविधान नहीं देता। आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य शासन के एम.ओ.यू. को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि अनुसूचित क्षेत्र की जनजातियों की भूमि पर उद्योग लगाना असंवैधानिक है। जनजातियों के संरक्षण और विकास के प्रति संविधान दृढ़ संकल्पित है किंतु केन्द्र व राज्य सरकारें संसाधनों के दोहन के नाम पर लगातार औद्योगीकरण को बढ़ावा दे रही है। संविधान के अनुच्छेद 350ए में स्पष्ट निर्देश था कि प्रत्येक राज्य और उस राज्य के अंतर्गत प्रत्येक स्थानीय सत्ता भाषाई अल्पसंख्यक समूहों के बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधा जुटाएगी। किंतु आज तक जनजाति बच्चों को उनकी भाषा में शिक्षा देने की व्यवस्था नहीं की गई जो कि चिंता का विषय है। भारत सरकार द्वारा सभी आदिवासी बाहुल राज्यों में जनजाति लोककला, संग्रहालयों, सांस्कृतिक केन्द्रों, लोकसंगीत नाटक अकादमी तथा लोककला वीथिका की स्थापना किए जाने की आवश्यकता है, जिससे लोगों में इन विलुप्त हो रही लोककलाओं के प्रति जागरूकता पैदा हो सके तथा साथ-साथ इसका भी ख्याल रखा जाना आवश्यक है कि बड़ी तेजी से उभरते महानगरीय संस्कृति की चकाचौंध का प्रभाव इन लोकलाओं पर न पड़े। लोककलाओं को आज व्यवसाय का माध्यम बनने हेतु भी आवश्यक कदम उठाने की जरूरत है जिससे इन विधाओं से जुड़े लोककलाकारों को आजीविका के साधन उपलब्ध हो सकेंगे तभी देश का सही मायने में विकास हो पाएगा।

      भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14(4), 16(4), 46, 47, 48(क), 49, 243(घ)(ड), 244(1), 275, 335, 338, 339, 342 तथा पांचवी अनुसूची के अनुसार अनुसूचित जनजातियों के राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक विकास जैसे कल्याणकारी योजनाओं के विशेष आरक्षण का प्रावधान तथा राज्य स्तरीय जनजातीय सलाहकार परिषद की बात कही गई है परंतु इसे अब तक लागू नहीं कर पाना वाकई चिंता का विषय है। यह सर्वविदित है कि जनजाति क्षेत्रों में उपलब्ध खनिज संसाधनों से सरकार को अरबों रुपए के राजस्व की प्राप्ति होती है या सीधे शब्दों में कहा जाए तो सरकार के आय के स्रोत इन जनजाति क्षेत्रों में उपलब्ध वन संसाधन तथा खनिज संसाधन ही हैं, परंतु इस राजस्व का कितना प्रतिशत हिस्सा उन अनुसूचित क्षेत्रों के राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक विकास में खपत किया जाता रहा है। अनुसूचित क्षेत्रों में सरकार द्वारा स्थापित उद्योग-धंधों से प्रभावित परिवारों को प्रदान की जाने वाली मुआवजा राशि की बात हो, विस्थापित परिवार के सदस्यों को नौकरी का मुद्दा हो, विस्थापित परिवार के सदस्यों के शेयर होल्डिंग तय करने की बात हो तथा अनुसूचित क्षेत्रों के विकास हेतु सुव्यवस्था स्थापित करने की बात हो इन सभी मुद्दों पर सरकार को वाकई गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है, तभी जनजातीय बहुल प्रदेश में व  देश के आदिवासियों की स्थिति में सुधार हो पाएगा। बस्तर के जनजाति शिक्षा व स्वास्थ्य के अभाव मे आज भी ठगे जा रहे हैं. बस्तर में आम, इमली व् अमचूर के बदले नमक लेने का प्रचलन सदियों से बदस्तूर जारी है. जिसका सीधा सीधा फायदा वहाँ के नक्सलवादी या मावोवादी को  होता दिखाई देता है क्योंकि वे इन कमियों के आधार पर उनको ज्यादा से ज्यादा अपने पक्ष मे करने का प्रयास करते हैं और आम जनता को इस संबंध मे कोई प्रश्रय नहीं मिलने की स्थिति मे आम ग्रामीण उनके पक्ष मे खड़ा दिखाई देता है। नक्सलवादियों के द्वारा वहाँ के भोली भली जनता को कई प्रकार के हथकंडे अपनाकर अपने लिए काम करने के लिए मजबूर भी करती रही है और आम जनता को दारा धमकाकर अपने पक्ष मे लाने का उनका तरीका बहुत पुराना है।

      नक्सलवाद के दर्शन पर बात करें तो पुरे विश्व में दो प्रकार के दर्शन हैं 1. सर्वहारा दर्शन तथा 2. पूंजीपति दर्शन . उनके अनुसार कम्युनिस्ट विचारधारा एक विस्तारवादी विचारधारा के रूप में स्थापित है जो कि तकरीबन 62 बार विखंडित हो चूका है तथा 28 बार स्थापित हुआ है. उन्होंने बताया की कोई भी विचारधारा साहित्य, मीडिया व साहित्य से ही संपन्न होता है, और इस कम्युनिस्ट पार्टी के विस्तार का आधार ही यही है। इस संगठन में सेंट्रल कमेटी के अंतर्गत पोलित ब्यूरो व् सेंट्रल मिलिट्री कमीशन कार्य करी है जिसमे से पोलित ब्यूरो  के अधीन ररीजनल ब्यूरो, स्पेसल जोनल कमिटी, सब जोनल कमिटी, डिवीज़न कमिटी, एरिया कमिटी या टाउन कमिटी, LOS, रेवोल्यूशनरी पीपुल काउंसिल जिसमे मास ओर्गानिज़ेसन, पार्टी सेल, तथा ग्राम रक्षा दल जैसे संगठन ARD/GRD/Raksha शामिल हैं. इसी तरह सेंट्रल मिलिट्री काउंसिल CMC के अंतर्गत सेंट्रल टेक्निकल कमिटी, रीजिनल मिलिट्री कमिटी, स्टेट मिलिट्री कमीशन- जिसके अंतर्गत नार्थ यूनिफाइड कमांड, साऊथ यूनिफाईड कमांड व वेस्ट यूनिफाईड कमांड, बटालियन, डिविज़नल कमांड, कम्पनी, प्लाटून, जन मिलिसिया शामिल हैं. इस तरह नक्सल संगठन इस समय कार्यरत हैं. अगर बस्तर की बात करें तो इस समय 2 बटालियन व 14 कम्पनी दंडकारन्य क्षेत्र में कार्यरत है. इसी तरह इस क्षेत्र में ग्राम पार्टी कमिटी व रेवोलुश्नरी पीपल कौसिल के रूप में जनताना सरकार कार्यरत है जिसके तीन रूप पार्टी सेल, रक्षा सेल व अग्र संगठन है. दंडकारन्य स्पेशल जोनल कमिटी तीन क्षेत्रों में कार्यरत है जिसमे से दक्षिण यूनिफायड कमांड देवजी के नियंत्रण में है, उत्तर यूनिफाइड कमांड का नेतृत्व कोसा के हाथ में है. हिडमा इस कमिटी के प्रमुख साथी हैं. जो सम्मिलित रूप से इस क्षेत्र को अपने नियंत्रण में रखे हुए हैं. और इस क्षेत्र में प्रमुख कार्यवाहियों को अंजाम देते हैं.

      नक्सलवाद के एतिहासिक परिदृश्य के अनुसार भारत में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया का गठन 1925 में हुआ. सन 1966 से 1976 तक चीन में सांस्कृतिक क्रांति हुई जिसमे तक़रीबन 30 लाख लोग मरे गए थे. सन 1967 में ही भारत के ही नक्सलबाड़ी नामक स्थान में पहली घटना घटी. जिसमे प्रमुख रूप से लापा किसन, सांगू किसन तथा 150  कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थक लोग शामिल थे. इस घटना से नक्सलबाड़ी में तकरीबन 52 दिन उथल-पुथल रहा. जो की भारत में नक्सलवाद की पहली दस्तक थी.

      भारत में नक्सलवादी आन्दोलन के प्रमुख नेता के रूप में श्री कानू सान्याल, चारू मजुमदार तथा जंगल संथाल पूर्ण रूप से उभर चुके थे, जिसमे से कनु सान्याल का दायित्व संगठन को सम्हालने का था, वहीँ जंगल संथाल ने इस आन्दोलन में ज्यादा-से-ज्यादा आदिवासियों को जोड़ने में महती भूमिका निभाई. नक्सलवाद से जुड़े हुए नेताओं ने भारत में चर्चा-परिचर्चा हेतु युगास्ता क्लब की स्थापना किये. जिसमे महात्मा गाँधी, रजा राममोहन राय तथा जवाहर लाल नेहरु के विचारों पर बाकायदा बहस किया जाता था. इस आन्दोलन के प्रमुख नेता श्री चारू मजुमदार वर्ग संघर्ष में विश्वास करते थे , उनका मानना था कि- जिस व्यक्ति में वर्ग शत्रु के खून में अपना हाथ नहीं डुबोया हो वो कम्युनिस्ट नहीं हो सकता है.इसी कारण वे इस आन्दोलन में आदिम हथियार जैसे तीर कमान, टंगिया जैसे हथियारों के प्रयोग के पक्षधर थे. All India Coordination Committee of Communist Revolutionaries द्वारा 22 अप्रैल सन 1969 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) नाम के एक दल का गठन हुआ जिसका उद्देश्य भारत को तोडना था. जिसमे चीन का अध्यक्ष, हमारा अध्यक्षतथा चीन का पथ हमारा पथका नारा दिया गया. इसी कड़ी में आंध्रप्रदेश में ग़दर के नेतृत्व में जन नाट्य मण्डली का गठन , 1985 में दिल्ली में जन नाट्य मंच का गठन तथा  9 अगस्त 1990 में AISA का गठन किया गया. सन 2001 में दक्षिण एशिया के माओवादी संगठनो के द्वारा दक्षिण एशिया में माओवादी गतिविधियों के सञ्चालन हेतु  Coordination Committee of Maoist Parties and Organizations of South Asia (CCOMPOSA  की स्थापना की गई. इसके स्थापना के पश्चात मई 2010 में पश्चिम बंगाल के ज्ञानेश्वरी में एक घटना को अंजाम दिया गया. वर्ष 2011 में पश्चिम बंगाल में किशंजीत की हत्या की गई. इस घटना के तुरंत बाद ही इस आन्दोलन के प्रमुख नेता कनु सान्याल के द्वारा वर्ष 2012 में उत्तरबंग में आत्महत्या की जानकारी मिलती है. इसी कड़ी में मई 2013 छात्तिश्गढ़ के कई बड़े कांग्रेस नेताओं पर हमला किया गया जिसमे विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा तथा नन्द कुमार पटेल शामिल थे. 21 मार्च 2014 को आँध्रप्रदेश में PWG MCC (माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर) को मिलकर CPI (माओवादी ) का गठन किया गया. नक्सली दम्पति सव्यसाची पंडा की गिरफ़्तारी इसकी एक कड़ी के रूप में शामिल है. इस तरह इसके गठन के बाद से अब तक नक्सलवादी आन्दोलन में  आम आदिवासी, पुलिस कर्मचारी सहित कई लोगों शहीद हो चुके हैं, कई लोग अनाथ हो चुके है, बेघर हो चुके है. पता नहीं इस दंश से आम आदमी कब तक इसे ही मारा जाता रहेगा, अगर समय रहते इससें नहीं निपट पाए तो हम आनेवाली पढ़ी को जवाब नहीं दे पाएंगे।

      आज नक्सलवाद एक विचरधारा के रूप मे समाज को तोड़ने के साथ साथ देश को भी तोड़ने का प्रयास कर रही है अतः इसके वीभत्स परिणाम को ध्यान मे  रखते हुये वाद को समाप्त करने ठेका समाज को लेना चाहिये तथा  नक्सल को समाप्त करने का जिम्मा सरकार को उठाना होगा तभी यह कोढ़ समाज से खत्म होगा क्योंकि बन्दूक की क्रांति थोड़े समय के लिए होती है क्षणभंगुर होती है अगर क्रांति करनी है तो विचारों की क्रांति होनी चाहिए और ये ही विचारों की क्रांति ही इस समय बदलाव ला सकती है।  राष्ट्रवाद एक ऐसी विचारधारा है जो नकसलवाद को समूल नष्ट कर सकता है इस समय सारी दुनिया में 600 करोड़ लोग निवास करते हैं जिसमे से अकेले भारत में 100 करोड़ लोग निवास करते हैं अतः भारत को अपना विकास Modernity with Eternal Charector के तहत करना चाहिए. तभी भारत का सही मायनों में विकास होगा. 
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

-आशुतोष मंडावी
विभागाध्यक्ष, विज्ञापन एवं जनसम्पर्क अध्ययन विभाग , कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर, छत्तीशगढ़, 492013