Saturday, February 17, 2018

जनजाति समाज की आस्था, परंपरा एवं संस्कृति

जनजाति समाज की आस्था, परंपरा एवं संस्कृति

ज्नजाति समाज यह विचार पोषित करता है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद उसकी आत्मा नहीं मरती किन्तु नये श्रीर में चली जाती है और अगला जन्म पूर्व जन्म के कृत्यों और आचरणों पर निर्भर करता है। तात्कालीन बस्तर में सबसे अधिक पूजे जाने वाले देवता शिव थे। शिव की पत्नि की उपासना भी जुड़ी जो विविध नामों से पुकारी जाती है। विन्ध्यवासिनी या माणिक्येश्वरी को रक्तमय बलि की अपेक्षा करने वाली विकराल देवी माना जाता था, जहां पार्वती और उमा की कल्पना स्नेहमयी जननी के रूप में की गई थी। बस्तर में विष्णु पुजा ‘‘नारायण‘‘ के रूप् में ही प्रचलित थी। 1111 ई. के अभिलेख से ज्ञात होता है कि नाग-महारानी गुण्डमहादेवी ने नारायण देव की पूजा के लिए स्वमेव ‘‘नारायणपुर‘‘ ग्राम को मंदिर को समर्पित किया था। 1324 र्इ्र. के एक अभिलेख के अनुसार विष्णु के अंतिम अवतार ‘‘कलंका नारायण‘‘ की प्राण प्रतिष्ठा टेकरा नामक स्थान में की गई थी। नारायण के इन मंदिरों की पूरे देश में प्रतिष्ठा थी और कोने कोने से तीर्थ यात्री यहां आया करते थे। 
बस्तर 15वीं श्ताब्दी तक भ्रमरकोट या चक्रकोट के रूप् में ही प्रचलित था। अन्नदेव के वंशजों ने 16वीं शताब्दी में जब बस्तर ग्राम को राजधानी बनाया उसी के बाद राजधानी के नाम से पूरे अंचल का नामकरण बस्तर हो गया। 14वीं शताब्दी में चक्रकोट राष्ट बन गया तो उसके अंदर अनेक राज्य सम्मिलित हो गयो और वह अनेक राज्यों में बट गया। इस प्रकार नाग युग में कोट या राज्य प्रमुख प्रशासकीय क्षेत्र थे, जो नाडु में विभाजित थे। इनमें से कुछ नाडु आकार में लघु तथा विशाल थे। नाडु के आधाार पर क्षेत्रीय विभाजन की यह परंपरा 1224 ई. तक मिलती है। नाडंु प्रमुख प्रशासकीय संभाग थे जिन्हंे परवर्ती अभिलेखों में ‘‘मंडल‘‘ कहा गया है। कालान्तर में सोमेश्वर देव प्रथम जो कि 1069 ई. में चक्रकोट के राजसिंहोसन में बैठा था उसने  चक्रकोट मंडल तथा भ्रमरकोट मंडल जो कि बस्तर के दो प्रमुख संभाग थे दोनो को मिलाकर एक राष्ट की नीव डाली। ये मंडल जिलों में विभाजित थे जिन्हें अभिलेखों में वाडि कहा गया है। चूंिक चक्रकोट राष्ट नानाजनाकीर्ण थाा इसलिए प्रशासकीय सुविधा के लिए ये जिले जाति वर्णो के आधार पर बनाये गये थे- जैसे- कुम्हारवाड, मोचिवाड, कंसारवाड, कल्लालवाड, तेलीवाड, पारियारवाड, चमारवाड व छिपवाड अतः उपयुक्त नामों से स्पष्ट है कि पूर्व मध्ययुगीन बस्तर आठ व्यावसायिक वर्ग के जिलों में विभाजित थे। वाड या जिलों का विभाजन महानगर पुर तथा ग्राम के रूप में था। संस्कृत शब्द पुर तथा द्रविड़ शब्द उरू समानार्थी है तथा ये ऐसी वस्ती के वाचक है जो अधिक सुरक्षित हों और जहां राजधानी रहीं हो। इस प्रकार की बस्तीयों में बारसुरू, ओरपुरू, राजपुर तथा नारायणपुर प्रसिद्ध थीं। बारसुरू तथा राजपुर नागों की राजधानियां थी और नारायणपुर (नारायणपाल) एक बहुत बड़े धार्मिक केन्द्र के रूप् में विकसित हो चुका था। सामान्य बस्ती क्षेत्रों को अभिलेखों में वाड़ा ,ग्राम तथा स्थान कहा गया है। संस्कृत शब्द वाट का शाब्दिक अर्थ है- ऐसा सुनियोजित ग्राम जहां घर पंक्तिबद्ध हों। दंतेवाड़ा एक ऐसा ही सुनियोजित ग्राम 1061 ई. में विकसित हो चुका था। जिसमें घर एक पंक्ति में सुनियोजित ढंग से बनाये गये थे। सामान्य बस्ती की दूसरी कोटि उन गा्रमों की है जिन्हें अभिलेखांे में ग्राम गांव या नाडु नार कहा गया है। जिस प्रकार जिला स्तर का शासक व्यावसायिक वर्गों के अनुसार था उसी प्रकार ग्रामों की बसाहट धार्मिक सम्प्रदायों पर आधारित थी। छिन्दक नागों की राजधानी ‘‘बारसुरू ‘‘ एक मनोरम नगरी थी। शिव इस नगरी के अराध्य देव थे। प्रसिद्ध तेलुगु-चोड़-महामाण्डलिक ने इस नगरी के सौदर्य को बढ़ाने के लिए अथक प्रयास किया था। यहां पर उन्होंने अपने नामकरण के साथ चन्द्रादित्य मंदिर, चंद्रादित्य सरोवर, चंद्रादित्य नंदनवल का निर्माण करवाया था। यह नगरी मंदिरों , सरोवरों तथा अनेक बगीचों से दुल्हन की तरह सजी रहती थी और इसी कारण शतु्र राजवंशों ने इसे कई बार तहस नहस किया और नागों ने इसे बाार बार सजाया।
चक्रकोट शासन के प्रशासकीय क्षेत्रों का उत्तराधारक्रम
राष्ट अथवा देश

कोट अथवा महामण्डल अथवा राज्य


नाडु अथवा मंडल आधुनिक संभाग


वाडि अथवा विषय आधुनिक जिला


महानगर पुर ग्राम
वाड़ नाडुया ग्राम, गाव, नार




राजा के अधीन प्रशासकीय क्षेत्रों के विविध अधिकारियों का उत्तराधिकार क्रम-

महाराजा राष्ट का अधिपति


महामाण्डलिक अथवा महामण्डलेश्वर महामण्डलों का शासक


माण्डलिक मण्डल का स्वामी


विषयपति विषय का शासक


ग्राम नायक ग्राम का शासक

पूर्व मध्ययुगीन बस्तर का प्रमुख धर्म शैव था तथा शैवदर्शन की यहां प्रमुख शाखाएं या मत-मतांतर विकसित हो चुके थे, जिनमें कापालिक, कौल,तथा शाक्य प्रमुख थे। इनमें प्रत्येक मत तो यह स्वीकार करता है कि शिव विश्व के परमेश्वर हैं तथा मोक्ष का प्रमुख मार्ग भक्ति है, किन्तु भक्ति के स्वरूप, अर्चना के माध्यम, आचारसंहिता की विधि एवं सांस्काकि विधियों में इन मतों में विभेदकता मिलती है। 

भारत में जनजातीय क्षेत्रों में षिक्षा की स्थिति पर विष्लेषणात्मक अध्ययन

“भारत में जनजातीय क्षेत्रों में षिक्षा की स्थिति पर विष्लेषणात्मक अध्ययन “

जनजातियां विश्व के लगभग सभी भागों में पायी जाती है, भारत में जनजातियों की संख्या आफ्रीका के बाद दूसरे स्थान पर है। प्राचीन महाकाव्य साहित्य में भारत में निवासरत विभिन्न जनजातियों जैसे भारत, भील, कोल, किरात, किननर, कीरी, मत्स्य व निषाद आदि का वर्णन मिलता है। प्रत्येक जनताति की अपनी स्वयं की प्रशासन प्रणाली थी, व उनके मध्य सत्ता का विकेन्द्रीकरण था। परंपरागत जनजाति संस्थाएं वैधानिक, न्यायिक तथा कार्यपालिक शक्तियों से निहित थी। बिहार के सिंहभूम में मानिकी व मुण्डा तथा संथाल परगना में मांझी व परगनैत की प्रणालियां पारंपरिक संस्थाओं के कुछ उदाहरण है जिनका संचालन जनजातीय मुखियाओं के द्वारा किया जाता था। जो कि अपने-अपने जनजातीयों की सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक मामलों पर विशिष्ट प्रभाव रखते हैं।
जनजातीय के उद्भव के संदर्भ में भारत में जनजाति कई जिलों से मिलकर बनी एक उच्चतम राजनैतिक इकाई थी जो कि कबीलों के रूप् में संयोजित थी। जिसके अधिकार क्षेत्र में एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र था और अपने लोगों के उपर प्रभावी नियंत्रण रखता था। किसी विशेष जनजाति का निश्चित भू-अधिकार क्षेत्र का नामकरण उस जनजाति के उपर हुआ करता था। एैसा विश्वास किया जाता है कि भारत देश का नाम शक्तिशाली भारत जनजाति के नाम से हुआ है। इसी प्रकार मत्स्य गणराज्य जो कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी में अस्तित्व में था उसका उद्भव मत्स्य जनजाति से हुआ माना जाता है। राजस्थान और मध्यप्रदेश में निवासरत मीणा जनजाति मत्स्य जनजाति के ही वंसज है। मीणाओं का विश्वास है कि इस संसार का मूल मत्स्य यानि मीन अर्थात मछली से जुड़ा हुआ है। मीणा लोग मत्स्यावतार को भगवान के अवतार के रूप् में पूजते हैं। राजस्थान के दौस जिले में मत्स्यावतार का बहुत बड़ा मंदिर भी है। भारत में आज भी कई एैसे क्षेत्र हैं जिसका नाम वहां के जनजाति के नाम पर है जैसे. मिजोरम - मिजो, नागालैण्ड- नागा, त्रिपुरा-त्रिपुरी, संथाल परगना- संथाल, हिमाचल प्रदेश का लाहोल, स्वाग्ला व किन्नौर वहां के लाहोला, स्वांगला व किन्नौरा जनजाति के नाम के आधार पर पड़ा।
परंतु आठवीं शताब्दी में मुगलों के आक्रमण के कारण छोटा नागपुर व अन्य क्षेत्रों के उराव, मुण्डा व हो जनजातियों तथा पश्चिम भारत के भाील जनजाति बड़ी मात्रा में आतंक के शिकार हुए। मध्यभारत के जबलपुर के पास गड़हा नामक गोंडवाना राज्य में लगभग 200 बर्षो तक शाासन करने वाले गोंड राजा दलपत शाह, रधुनाथ शाह का मुगलों के साथ लंबे संमय तक संधंर्ष हुआ आैंार अंतत्ः अठारवीं शताब्दी में गांेड राज्य का अंत हो गया।  मुगलों ने जब दक्षिण भारत की ओर आक्रमण किया तब उन्होंने उत्तर पश्चिम भारत के उद्यमी जनजाति बंजारों के पशुओं को अपने रसद के परिवहन के लिए उपयोग में लाने के लिए बाध्य किया गया। इस प्रकार जनजातियों की क्षीण होती शक्ति का फायदा उठाकर मुगलों ने बड़ी मात्रा में जनतातियों को इस्लाम धर्म में परिवर्तित किया। व्रिटिश शासनकाल में ब्रिटिशर्स ने बीहड़ जनजातीय क्षेत्रों में आक्रमण न कर पाने के कारण उन क्षेत्रों मंे मिशनरियों के द्वारा सास्कृतिक आक्रमण किया गया और जनजातीय क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में धर्म परिवर्तन किया गया जिसका खामियाजा हमें आज भी चुका रहे हैं।  
सन् 1941 में भारत में जनजातियों की कुल जनसंख्या 2 करोड़ 47 लाख क लगभग थी। आज वर्तमान में 2011 के संेसस के रजिस्टार जनरल ऑफ इंडिया के रिपोर्ट के आधार पर भारत की कुल जनसंख्या 1 अरब, 21 करोड़, 5 लाख, 69 हजार 5 सौ 73 है जिनमे से  जनजातियों की जनसंख्या 10 करोड़ 42 लाख, 81 हजार 34 है जो भारत की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है। भारत की जनजातियों के संदर्भ में विशेष बात यह है कि यहां पर भील जनजातियां सर्वाधिक है जिनकी कुल जनसंख्या 1 करोड़ 26 लाख, 89 हजार, 9 सौ 52 है, दूसरे स्थान पर गोंड जनजाति है जिसकी कुल जनसंख्या 1 करोड़ 5 लाख, 89 हजार, 4 सौ 22 है। तीसरे स्थान पर संथाल जनजाति का है जिसकी संख्या 58 लाख, 38 हजार 16 है वही चतुर्थ स्थान पर मीणा जनजाति है जिनकी संख्या 38 लाख 2 है।
भारत में 50 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या जिलों की बात करें तो वे कुल 90 जिले है जिनमें से छत्तीसगढ़ में 7 जनजाति जिले, मध्यप्रदेश में 6 जिले , ओडिसा में 8 जिले, झारखण्ड में 5 जिले तथा गुजरात में 5 जिले है वहीं भारत में 25 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक की जनसंख्या वाले जिले 62 है।  

प््रादेश प््रादेश की कुल जनसंख्या प््र.ादेश की कुल जनजातियों की जनसंख्या प््रादेश की जनजातियों का प्रतिशत प््रादेश के जनतातियों का साक्षरता का प्रतिशत देश की जनसंख्या का जनजाति प्रतिशत
छत्तीसगढ़ 2,55,45,199 78,22,902 30.62 प्रतिशत 59.1 प्रतिशत 7.50 प्रतिशत
मघ्यप्रदेश 7,26,26,809 1,53,16,784 21.09 प्रतिशत 50.6 प्रतिशत 14.69 प्रतिशत
महाराष्ट 11,23,74,333 1,05,10,213 10.08 प्रतिशत 65.7 प्रतिशत 9.35 प्रतिशत
आध्रप्रदेश 8,45,80,777 59,18,073 49.2 प्रतिशत
झारखण्ड 3,29,88,134 86,45,042 8.29 प्रतिशत 57.1 प्रतिशत 26.21 प्रतिशत
प्श्चिम बंगाल 9,12,76,115 52,96,953 57.9 प्रतिशत
गुजरात 6,04,39,692 89,17,174 8.55 प्रतिशत 62.5 प्रतिशत 14.75 प्रतिशत


भारत के जनजातियों के लिए शिक्षा एक केन्द्र बिंदु है जिस पर उनका विकास निर्भर करता है शिक्षा से ज्ञान का प्रसार होता है। ज्ञान आंतरिक बल देता है जो कि जनजातियों को शोषण व गरीबी से मुक्ति पाने के लिए बहुत ही आवश्यक है। वर्तमान समय में जनजातियों के शोषण व दयनीय स्थिति के लिए मुख्य रूप् से शिक्षा ही जिम्मेदार है। निरक्षरता से उत्पन्न अज्ञानता के कारण जनजाति लोग नयी आर्थिक सुअवसरों का लाभ नहीं उठा पाये। जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसके अंतर्गत आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेंत्रों में विकास के साथ ही विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में नये प्रवर्तनों के बारे में समुदाय को सूचित करता है। इस कारण शिक्षा जनजातियों के अत्यंत आवश्यक है।
ज्नजातियों के लिए शिक्षा की महत्ता को समझते हुए संविधान निर्माताओं ने संविधान के अनुच्छेद 15 (4) एवं 46 में अनुसूचित जनजातियों में शिक्षा के प्रसार के लिए विशेश प्रावधान किये गये है। अनुच्छेद 15( 4 )के अनुसार राज्य सरकार को किसी भी सामाजिक अथवा शैक्षणिक रूप् से पिछड़े वर्ग के नागरिकों के प्रगति के लिए अथवा अनुसूचित जाति जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार प्रदान करता है। संविधान के अनुच्छेद 46 में सामाज के कमजोर बर्गो विशेषकर अनुसुचित जाति जनजााति को विशेष रूप् से ध्यान में रखकर शैक्षणिक एवं आर्थिक लाभ पहुंचान का दिशा निर्देश राज्य सरकार को दिये है। परंतु रजिस्टार जनरल ऑफ इंडिया के द्वारा जारी किया गया है चौकाने वाले हैं कक्षा पहली से 12वीं तक सिर्फ 13.9 प्रतिशत जनजाति ही पहुंच पाता है। वहीं भारत की पहली से 10वीं तक के जनजातीय बालकों का डॉपआउट रेट 70.6 प्रतिशत है तथा बालिकाओं का 71.3 प्रतिशत है। जो कि चिंताजनक है। इसी तरह छत्तीसगढ़ के संदर्भ में महत्वपूर्ण सांख्यिकी निम्नानुसार है-
क्रमांक छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण संस्थान स्ंाख्या
1. प्राथमिक शाला 16941
2. मध्यमिक शाला 6202
3. हाई स्कूल 416
4. उच्चतर माध्यमिक विद्यालय 625
5. आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय 05
6. कन्या शिक्षा परिसर 05
7. ग्ुारूकुल परिसर 01
8. कन्या क्रीड़ा परिसर 13
9. एकलव्य आवासीय परिसर 08
10. प््राी मेटिक छात्रावास 1219
11. पोस्ट मेटिक छात्रावास 187
12. आश्रम शालाएं- प्राथमिक स्तर 1031
13. आश्रम शालाएं- माध्यमिक स्तर 79
शिक्षा राज्य एव ंकेन्द्र दोनो का विशय है तथा शिक्षा के प्रसार का मूल दायित्व राज्य सरकार को सौपा गया है। केन्द्र सरकार उच्च शिक्षा, अनुसंधान, वैज्ञानिक एवं तकनीकि शिक्षा के क्षेत्रे में सुविधाओं के समन्वय तथा मानक निर्धारण के लिए उत्तरदायी है। केन्द्र सरकार का मु,ख्य प्रयास अनुसूचित जनजातियों को मैटिक उपरांत छात्रवृति दिलवाना, बालक, बालिका छात्रवासों की स्थापना करवाना और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग केन्द्र का प्रबंध करवाना होता है कल्याण मंत्रालय द्वारा इस कार्यक्रम के लिए विषेश केन्द्रीय सहायता प्रदान करती है। शिक्षा मंत्रालय/एच आर डी द्वारा दी गई कुछ प्रमुख सुविधाओं के सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानो, क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेजों, मेडिकल कॉलेजों और केन्द्री विद्यालयों में 71/2 प्रतिशत जनजातियों के लिए तथा 15 प्रतिशत अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था प्रदान करती है। हालाकि पिछले वर्षों में जनजातियों की साक्षरता में वृद्धि हुई है लेकिन फिर भी हर साक्षरता के उस सामान्य स्तर तक नहीं पहुंच पाये है। रजिस्टार जनरल आफ इंडिया द्वारा जारी पिछले कुछ वर्षों के साक्षरता दर पर ध्यान दे तो पायेंगें कि-

वर्ष सभी सामाजिक समूहांे का प्रतिशत अनुसूचित जनजातियों का प्रतिशत
1961 28.3 प्रतिशत 8.53 प्रतिशत
1971 34.45 प्रतिशत 11.30 प्रतिशत 
1981 43.57 प्रतिशत 16.35 प्रतिशत
1991 52.21 प्रतिशत 29.60 प्रतिशत 
2001 64.84 प्रतिशत 47.10 प्रतिशत
2011 72.99 प्रतिशत 58.96 प्रतिशत


शिक्षा नीति में बदलाव के तहत अनु. जनजातियों के विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए नवोदय विद्यालय जैसी शिक्षण संस्थान स्थापित किये गये लेकिन 12वीं के प्ष्चात की व्यवस्था के लिए किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं किया गया जिससे प्रतिभा वहंी नष्ट होती जा रही है। 
शिक्षा की धीमी प्रगति के प्रमुख कारण निम्नानुसार है-
1. माता पिता के द्वारा अनदेखी-  गरीबी से त्रस्त माता पिता के लिए उनके बच्चों की शिक्षा एक विलासिता है, जिसका वहन वे बड़ी मुस्किल से कर पाते हैं। बच्चे जीवन यापन के लिये अपने माता पिता की सहायता करते है। जब माता पिता कृषि अथवा श्रमिक कार्य के लिए बाहर जाते हैं तो व्यस्क बच्चे अपने छोटे बच्चों की देखभाल करते है। गरीब माता पिता के बच्चों की शिक्षा की सुविधाआंे से बंचित किये जाने के लिए शिशु संरक्षण केन्द्र, शिशु सदन, बालवाडि़यों का जनजातीय क्षेत्रों में न होना एक बहुत बड़ा कारण है। 
2. शिक्षा की विषय वस्तु व पाठ्यक्रम - जनजातियेां की शिक्षा के पाठ्यक्रम को सावधानीपूर्वक तैयार करने की जरूरत है। अनुसूचित जनजातियों की सामाजिक सांस्कृतिक परिवेष पर ध्यान देना आवश्यक है। वर्तमान में शिक्षा की समस्या विषय वस्तु को जनजाति क्षेता्रें के लिए लागू किया गया है जो कि कई मामलों में विशेषकर आरंभिक स्तर पर तर्कसंगत नहीं है। इसलिए शिक्षा को सार्थक बनाने हेतु इस विषय पर पुनर्विचार करना आवश्यक है।
3. अपर्याप्त शैक्षणिक संस्थाएं व सहायक सेवाएं- जनजाति क्षेत्रों में शैक्षणिक संस्थानों, भोजन व आवास सुविधाओं की अपर्याप्तता से ग्रसित है। जहां संस्थान व स्कूल खोले भी गये हैं, वहां लगभग 40 प्रतिशत केन्द्र भवनहीन हैं। छात्रवृतियों, पुस्तक वैंकों आदि के रूप् में प्रोत्साहन जैसी सहायक सेवाएं व सामग्रियां बहुत ही नगण्य व अपर्याप्त है तथा सामान्यतः यह बच्चों को आकर्षित नहीं करते।
4. शिक्षकों की अनुपस्थिति- जनजाति क्षेत्रों में शिक्षकों की अनुपस्थिति शिक्षा को विपरीत रूप् से प्रभावित करने वाली एक प्रमुख समस्या है। शिक्षण संस्थाएं जनजाति क्षेत्रों में दूरस्त क्षेतो में स्थित होती है। शिक्षकों की उपस्थिति पर प्रभावी नियंत्रण रखना एक गंभाीर समस्या है। शिक्षक अपने उपर किसी पर्यवेक्षण केे न होने और जनजातियों की शिक्षा के लिए समर्पण की भावना की कमीं के कारण व सामान्यतः कई दिनों तक अनुपस्थित रहते हैं। बच्चे व माता पिता अपना समय व्यर्थ गंवाना सहन नहीं कर पाते और इसलिए निराष होकर सामान्यतः स्कूल शिक्षा से बंचित होकर बच्चे स्कूल छोड़ने पर बाध्य होते हैं।
5. शिक्षण का माध्यम- जनजातियों के लिए स्कूलों में शिक्षण का माध्यम एक कठिन समस्या है। स्वतंत्रता के 68 वर्षो के बाद भी हम जनजातियों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा नहीं दे पाये । जनजाति बच्चे स्कूल में उनके लिए पूणर््ातः अजनबी भाषाओं में दिये गये पाठों को सामान्यतः समझ नहीं पाते । संविधान के अनुच्छेद 350(क) के अनुसार प्राथमिक स्तर तक शिक्षण उनकी मातृभाषा में दिये जाने का प्रावधान है। राष्टपति को भी इस उद्वेष्य हेतु किसी भी राज्य को दिशा निर्देश जारी करने की शक्ति प्रदत्त है परंतु इस दिशा में अपेक्षित कदम नहीं उठाये गये।
6. शिक्षा नीति - जनजाति क्षेता्रं के अभी तक को स्पष्ट शिक्षा नीति नहीं बन पायी है विभिन्न समितियों व आयोगों के सिफारिशे और सुझाओं के बावजूद जनजाति क्षेता्रें के लिए कोई नीति लागू नही ं की गई है। कुछ राज्यों में जनजाति क्षेतों के शिक्षा विभाग के नियंत्रण में हैं तों कुछ राज्यों मे जनजाति कल्याण विभाग के अधीन जजाति क्षेत्रों के शैक्षणिक संस्थानों के संबंध में प्रशासनिक नीति के अभाव से जनजातियों के शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
7. शिक्षा की विषय वस्तु में जनजातियों की आवश्यकताओं व अभिलाषाओं को ध्यान रखा जाना चाहिए। 
8. प्राथमिक स्तर पर विषयों का चयन बडी सावधानी पूर्वक करना चाहिए, शिक्षा कार्योन्मुखी होना चाहिए। 
9. जनजाति शिक्षा के पाठ्यक्रमों में पारंपरिक स्थानीय कौशल, हस्तकलाओं का समावेश होना चाहिए।
10. जनजातियों को उन्हें अपने अधिकारों व कर्तव्यों को समझने के लिए प्राथमिक नागरिक शास्त्र भी पढ़ाया जाना चाहिए।
11. जनजाति क्षेत्रों में शैक्षणिक संस्थाओं को खोलने के लिए प्राथमिकता दी जानी चाहिए तथा इन क्षेत्रांे में स्कूल जाने के लिए 4 किलोमिटर से अधिक पैदल चलने वाले विद्यार्थियों के लिए छात्रावास जैसी सुविधाएं उपलब्ध करायी जानी चाहिए।
12. पाठ्यक्रम में जनजातियों के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को सम्मिलित किया जाना चाहिए। कम से कम प्राथमिक स्तर तक शिक्षा का माध्यम जनजाति भाषाओं में होना चाहिए माध्यमिक स्तर के बच्चों के लिए शिक्षण का माध्यम क्षेत्रीय अथव राज्य की भाषा होनी चाहिए।
13. शिक्षकों का चयन जनजातियों में से ही किया जाना चाहिए और समुचित संख्या मंे योग्य शिक्षक न मिलने की स्थिति में शैक्षणिक योग्यता में आवश्यक छूट भी दी जानी चाहिए। जनजातीय भाषा जानने वाले सामान्य शिक्षक का भी चयन किया जा सकता है।
14. जनजातीय क्षेत्रों में अधिकाधिक संख्या में बालवाड़ी, शिशु सदन, शिशु संरक्षण केन्द्र की स्थापना की जानी चाहिए। इन केन्द्रो पर उचित पौष्टिक आहार कार्यक्रमेां को भी क्रियान्वित किया जाना चाहिए जिससे न केवल जनजातीय बच्चों को पौष्टिक भोजन प्राप्त होगा अपितु उनमें स्वास्थ्य व संतुलित भोजन के बारे में जागरूकता पैदा होगी।
15. प्राथमिक स्तर के अघ्यापकों के लिए एक प्रभावी पर्यवेक्षण पद्धति का होना आवष्यक है। जहां आवष्यक हो वहां उन्हंे स्थानीय पंचायतेां के नियंत्रण में रखा जा सकता है।
16. छाता्रवासों की व्यवस्था में जनजातियों व स्वैच्छिक एजंेसियों की भी प्रभावी सहभागिता होनी चाहिए। 
17. जनजातिय क्षेता्रें में स्थापित विविध औद्योगिक व अन्य परियोजनाओं की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शैक्षणि शिक्षा व व्यवसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए उन्हंे सक्षम होना चाहिए। जनजातियों की आवश्यकताओं पर औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थाओं को भी ध्यान देना चाहिए प्रशिक्षण उपरांत सहायता भी प्रशिक्षण कार्यक्रम का एक अंग होना चाहिए।
18. जनजातियों में खेलकूद के प्रति वंशागत प्रतिभावान होते हैं इस क्षेत्र में उनकी प्रतिभा को प्रोत्साहन किया जाना चाहिए।

पारंपरिक लोककलाओं, लोकनृत्यो व लोकगीतों के विकास तथा संवर्धन हेतु हमारे विभिन्न विष्वविद्यालयों द्वारा संचालित पाठ्यक्रमों में स्थान देने की जरूरत है, तथा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी गोंडी, हल्बी, भतरी जैसी बोलियों को संरक्षित करने के आदिवासी भाषा व लोककला संस्थान स्थापित करने के प्रयास किये जाने की आवष्यकता है, क्योकि ये आदिवासी बोलियां, ये लोककलाएं, ये नृत्य, ये चित्रकला तथा मूर्तिकला हजारों वर्षों के अनुभवों को अपने में संचित तथा समाहित किये हुये हैं। सरकार द्वारा  आदिवासी लोककला संग्राहलयों, सांस्कृतिक केन्द्रों, लोकसंगीत नाटक अकादमी तथा लोककला वीथिका की स्थापना किये जाने की आवष्यकता है, जिससे लोगों में इन विलुप्त हो रही लोककलाओं के प्रति जागरूकता पैदा हो सके तथा साथ-साथ इसका भी ख्याल रखा जाना आवश्यक है कि बड़ी तेजी से उभरते महानगरीय संस्कृति की चकाचौंध का प्रभाव इन लोककलाओं पर न पडे । लोककलाओं को आज व्यवसाय का माध्यम बनाने हेतु भी आवष्यक कदम उठाने की जरूरत है जिससे इन विधाओं से जुड़े लोककलाकारों को आजीविका के साधन उपलब्ध हो सकेंगे तभी देश का सही मायने में विकास हो पायेगा। 
आज अगर हम विकास की बात करते हैं तो उस विकास में सिर्फ सिमित लोगों का विकास ही शामिल हैं, संपन्नता की पहुंच सिर्फ कुछ ही लोगों तक सिमित है देष की आजादी के 68 वर्ष पूर्ण करने के बाद भी साक्षरता का लक्षित दर अभी तक हासिल नही किया जा सका हैं ।

छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक स्थिति पर विष्लेषणात्मक अध्ययन

“ छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक स्थिति पर विष्लेषणात्मक अध्ययन “

बस्तर के शहीद गुण्डाधुर के नेतृत्व में 1910 में संचालित भूमकाल आंदोलन को आज 100 वर्ष से भी ज्यादा हो चुके हैं भूमकाल की याद में दण्डकारण्य क्षेत्र में हर जगह ं भूमकाल का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है, आज  भूमकाल आंदोलन के 100 वर्ष के बाद भी आदिवासियों की सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता है। कई सत्ता परिवर्तन हुए पर आज भी आदिवासियों की स्थिति वहीं की वहीं है। आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के प्रयास अब भी खोखले दावे ही साबित हो रहे हैं अनुस्ूाचित क्षेत्रों की अगर बात करे तो सरकार का ध्यान आदिवासी मुट्ठों के प्रति कभी गंभीर रहा ही नहीं है । चाहे वह पेसा एक्ट का मामला हो या वन अधिनियम की बात हो तथा खनिज संसाधनों की रायल्टी से संबंधित मुद्दे हो ये एैसे मुद्दे हैं जिन पर सरकार को विषेष रूप से प्रयास करने की आवष्यकता महसूस होनी चाहिए तभी आदिवासी हितों को संरक्षण मिल पायेगा।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (4), 16(4), 46, 47, 48(क),49 243(घ)(ड), 244(1), 275, 335, 338, 339, 342 तथा पांचवी अनुसूचि के अनुसार अनुसूचित जनजातियों के राजनैतिक, आर्थिक, सास्कृतिक तथा शैक्षणिक विकास जैसे कल्याणकारी योजनाओं के विषेष प्रावधान की बात कही गई है परंतु इसे अब तक लागू नही कर पाना वाकई सरकार के लिए चिंता का विषय  है।
भारतीय संविधान के पांचवी अनुसूचि के अनुसार छत्तीसगढ़ के अधिसूचित क्षेत्रों जैसे सरगूजा, जषपुर, कोरिया, रायगढ़, देवभोग, कोरबा, बिलासपुर, कवर्धा, मानपुर, मोहला, गरियाबंद, सिहावा, नगरी डौन्डी लोहारा, कांकेर, बस्तर, दन्तेवाड़ा, नारायणपुर एवं बीजापुर में पंचायतीराज संस्थाओं की भांति नगरीय निकाय चुनाव में भी अघ्यक्ष एवं महापौर के पद आदिवासियों के लिए प्रावधानित होने थे परंतु समय पर इसे लागू नही कर पाने के कारण राज्य के 4 नगर निगम, 9 नगर पालिका एवं 46 नगर पंचायतों में अब तक हुए तीन आम चुनाओं में लगभग 150 से अधिक आदिवासी जनप्रतिनिधियों  को महापौर व पंचायत अध्यक्ष के पदों से हांथ धोना पड़ा है, जो वाकई चिंताजनक है। 
भू-राजस्व संहिता 1959 की धारा -165 (6-ड) तथा 170 (ख) के तहत यह स्पष्ट रूप से ज्ञात है कि अनुसूचित जनजातियों के अचल संपत्तियों के संरक्षण की बात हो या लघु वनोपज जैसे इमली, अमचूर, महुआ, चिरौजी, तिखुर, आदि के प्रसंस्करण के व्यवसाय की बात हो आदिवसी हमेंषा से ठगे ही गये है। यह सर्वविदित है कि आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध खनिज संसाघनों से सरकार को अरबाोें रूपये के राजस्व की प्राप्ति होती है या सीधे शब्दों में कहा जाए तो सरकार के आय के स्रोत इन आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध वन संसाधन तथा खनिज संसाधन  ही हैं, परंतु इस राजस्व का कितना प्रतिषत हिस्सा उन अनुसूचित क्षेत्रों के राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक विकास में खपत किया जाता रहा है ।
 अनुसूचित क्षेत्रों में सरकार द्वारा जो उद्योग-धंधे स्थापित किये जा रहे हैं उनमें प्रभावित ग्रामीणों व विस्थापित परिवारों केा प्रदान की जाने वाली मुआवजा राषि की बात हो या विस्थापित परिवार के सदस्यों को नौकरी का मुद्दा हो या फिर विस्थापित परिवार के सदस्यों के शेयर होल्डिग तय करने की बात हो इस पर सरकार को वाकई गंभीरतापूर्वक विचार करने की जस्रत है क्योकि किसी भी समुदाय के व्यक्ति के लिए आत्मसम्मानपूर्वक जीवन-यापन के लिए रोटी, कपड़ा और मकान के साथ-साथ आत्मसम्मान भी जरूरी है । छत्तीसगढ़ राज्य सांस्कृतिक वैषिष्टयता वाला प्रदेष है जहां की आदिवासी संस्कृति अपने आप में विषिष्टता लिए हुए है छत्तीसगढ़ के  लोकनृत्य जैसे नाचा, पंडवानी, गम्मत नृत्य, दंडामी नृत्य, मांदरी लोकनृत्य, रेला, ददरिया जैस लोकगीत, गोधना कला आदिवासी चित्रकला तथा आदिवासी लोककलाओ जैसे काष्ठ कला, ढोकरा कला ,षिल्पकला, चित्रकला आदि को उनसे जुड़ी तमाम विधाओं के साथ सहेजनेे की सबसे ज्यादा जरूरत है, क्योकि लोककलाओं को बचाना है और उन्हें जीवनोपयोगी रखना है तो उनके साथ जुड़े संस्कारों को भी बचाना होगा, तभी लोककलाओं को उसकी आत्मा के साथ बचाया जा सकता है। तभी छत्तीसगढ़ राज्य की सांस्कृतिक वैशिष्टयता को संरक्षित करने में हम सफल हो पायेंगे।
छत्तीसगढ़ के इन पारंपरिक लोककलाओं, लोकनृत्यो व लोकगीतों के विकास तथा संवर्धन हेतु हमारे विभिन्न विष्वविद्यालयों द्वारा संचालित पाठ्यक्रमों में स्थान देने की जरूरत है, तथा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी गोंडी, हल्बी, भतरी जैसी बोलियों को संरक्षित करने के आदिवासी भाषा व लोककला संस्थान स्थापित करने के प्रयास किये जाने की आवष्यकता है, क्योकि ये आदिवासी बोलियां, ये लोककलाएं, ये नृत्य, ये चित्रकला तथा मूर्तिकला हजारों वर्षों के अनुभवों को अपने में संचित तथा समाहित किये हुये हैं। सरकार द्वारा  आदिवासी लोककला संग्राहलयों, सांस्कृतिक केन्द्रों, लोकसंगीत नाटक अकादमी तथा लोककला वीथिका की स्थापना किये जाने की आवष्यकता है, जिससे लोगों में इन विलुप्त हो रही लोककलाओं के प्रति जागरूकता पैदा हो सके तथा साथ-साथ इसका भी ख्याल रखा जाना आवश्यक है कि बड़ी तेजी से उभरते महानगरीय संस्कृति की चकाचौंध का प्रभाव इन लोककलाओं पर न पडे । लोककलाओं को आज व्यवसाय का माध्यम बनाने हेतु भी आवष्यक कदम उठाने की जरूरत है जिससे इन विधाओं से जुड़े लोककलाकारों को आजीविका के साधन उपलब्ध हो सकेंगे तभी छत्तीसगढ़ का सही मायने में विकास हो पायेगा। 
आज भारत जैसे विकासषील देष की अगर बात करें तो भारत में लगभग 70 प्रतिषत जनता अभी भी गांवों में निवास करती है और जहां ं साक्षरता का प्रतिषत भी  अमूमन यही दिखलाई पड़ता है। अन्य विकसित देष जैसे अमेरिका, रूस, जापान तथा चीन की अगर बात करें तो वहां भी आधारभूत विकास पर ज्यादा ध्यान दिया गया तथा सामुदायिक सहभागिता के आधार पर ही विकास के नये कीर्तिमान स्थापित किये गये, इसलिए आधारभूत विकास व सामुदायिक सहभागिता के सिद्धांत के बिना कोई भी देष विकास की ओर अग्रसर नहीं हो सकता है।नक्सलवाद आज छत्तीसगढ़ जैसे शांत और सौम्य राज्य के लिए ही नही बल्कि समूचे भारत देष के लिए नासूर बनता जा रहा ह,ै इस नक्सलवाद ने न जाने कितने बेगुनाहों को मौत के मुंह में धकेल चुका है ? न जाने कितनीं महिलाओं को विधवा बना चुका है ? न जाने इस नक्सलवाद से कितने बच्चों को अनाथ कर दिया ? कितनों के घर तबाह हो गये ? और ये मौत का तांडव थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। न जाने ये सिलसिला कब तक एैसे ही चलता रहेगा ? सुंदर और शांत बस्तर आज नक्सली हिंसा के कारण युद्धभूमि में तब्दील हो गया है, आये दिन न जाने कितने आदिवासियों की हत्यायें हो रही है या फिर कितने लोग अगवा कर लिये जा रहे है। स्कूलों की बात तो छोडि़ये बस्तर में अब तक 8 हजार गांवों का नामोनिषान मिट चुका हैं, 60 हजार आदिवासी अस्थाई केम्पों में बदहाल जीवन जीने को मजबूर हैं लाखों लोग बेघर हो गये हैं । पर इसका सकारात्मक हल हम सबको मिलकर ही ढूढना होगा। नही तो आने वाली पीढ़ीयां हमें कभी माफ नहीं कर पायंेगी। नक्सलवादियों और माओवादियों के द्वारा की जाने वाली हत्याओं का सिलसिला अभी भी जारी है। अभी हाल ही में उन्होंने छत्तीसगढ़ में माझीपारा, से सुकमा के कलेक्टर श्री एलेक्स पॉल मेनन को अगुआ किया था तथा उनके दो सुरक्षाकर्मियों की बीच बाजार में हत्या कर दी ।तथा इस घटना से एक महीने पहले उड़ीसा से युवा विधायक को अगुआ किया था जिसे बड़ी मषक्कत के बाद छोड़ा गया। माओवादियों के द्वारा 2005 से अब तक वे 2670 से भी ज्यादा लोगों की हत्या कर चुके हैं जिनमें 1680 से भी ज्यादा ग्रामीण व दूसरे लोग हैं और 1000 से अधिक सुरक्षा बलों के जवान शामिल हैं। 2010 में ही अगस्त तक माओवादी 460 से ज्यादा लोगों की हत्या कर चुके हैं जिनमें से सुरक्षा बलों के 167 जवान हैं और बाकी सामान्य नागरिक जिनमें वे ग्रामीण भी शामिल हैं जिनके बारे में उन्हें शक था  िक वे पुलिस के खबरी हैैं। लाल आतंक से ग्रस्त राज्यों में छत्तीसगढ में माओवादी सबसे ज्यादा सक्रिय हैं। वहां उन्होंने सुरक्षा बलों के सबसे ज्यादा जवानों को मारा है। उसके बाद पष्चिम बंगाल का नंबर आता है । इसके बाद ओड़ीसा है और फिर झारखण्ड और बिहार। 2009 में माओवादियों और नक्सलवादियों की हिंसा में करीब 1000 लोगों की मौत हुई है। इस आंकड़े में 392 नागरिक, 312 सुरक्षाकर्मी और 294 नक्सलवादी शामिल हैं। 2008 में उन्होंने 210 नागरिकों व 214 सुरक्षाकर्मियों को मारा जबकि 214 माओवादी भी मारे गये। टाईम्स ऑफ इंडिया के लिए आई एम आर बी द्वारा तेलांगाना के माओवादी ग्रस्त जिलों में किये गये एक सर्वे से हैरतअंगेज खुलासे हुए है। ये वही जिले हैं जहां कभी नक्सलियांे का बोलबाला हुआ करता था। आंध्रप्रदेष में नक्सल समस्या पर सरकार मानती है कि यहां समस्या पर काबू पाया जा चुका है लेकिन सरकार को अब तक इस बात की खबर नहीं है कि लोगों के दिलों में नक्सली ही राज कर रहे है। इस सर्वे में शामिल 58 प्रतिषत लोगों का मानना है कि नक्सलियों से ज्यादा सरकार उनके लिए बुरी साबित हुई है। करीब 50 प्रतिषत लोगों ने साफ कहा कि नक्सलियों के डर से सरकार पर दबाव बना  िकवह राज्य में विकास कार्य करें । केवल 34 प्रतिशत लोगों ने माना कि राज्य से नक्सलियों का प्रभाव कम हो जाने के बाद से उनके जीवन स्तर में सुधार हुआ है। हैरत की बात तो यह है कि सर्वे में शामिल करीब 60 फीसदी लोगों ने नक्सलियों के मुठभेड़ में मारे जाने के दावों को फर्जी बताया। इन लोंगों का मानना है कि उन्हें इन मुठभेड़ों की सचाई पर संदेह है। केवल 34 प्रतिषत लोगों ने सुरक्षा एजेंसियों द्वारा नक्सलियों को मार गिराने को सहीं माना जबकि 60 प्रतिषत लोगों ने इसे गलत ठहराया।
योजना आयोग के भूतपूर्व सदस्य एवं नेशनल एडवायजरी काउंसिल (राष्ट्रीय सलाहकार परिषद) के वर्तमान सदस्य श्री एन. सी. सक्सेना द्वारा एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि विकास की रफ्तार में कहीं न कहीं आदिवासियों के हितों की अनदेखी की जा रही है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देष में हो रहा विकास आदिवासियों को संपन्न न बनाते हुए उनका नुकसान कर रहा है, घर से बेदखल होने के बाद आदिवासियों का व्यवस्थापन सहीं रूप से न होना विकास के प्रति कू्रर मजाक है, वन संपदाओं का उपयोग जहां व्यावसायिक मुनाफे के लिए हो रहा है, इसके साथ ही वन से जुड़े आदिवासियों के हितों का संरक्षण नहीं किया जा रहा है, एसी स्थिति में आदिवासियों में असंतोष बढ़ रहा है। यह उल्लेखनीय है कि श्री सक्सेना द्वारा उड़ीसा के कालाहांडी जिले के नियामगिरी क्षेत्र में पर्यावरण की सुरक्षा के कारण तथा उनसे जुड़े आदिवासियों के हितों को ध्यान रखकर बेदांत परियोजना को नामंजूर करने की सिफारिश की गई थी, जिसके पश्चात राजनीति में उथल-पुथल मची हुई है, यदि विकास का अर्थ मानव जीवन को स्वस्थ बनाना है तो किसी थी परियोजना में आदिवासी हितों का संरक्षण एक प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए और यदि आदिवासियों के हितों की तिलांजली देकर पूंजीपति प्रेरित मुनाफे को महत्व देते हुए विकास की परिकल्पना की जाती है तो उसका तीव्र विराध खास तौर पर किया जाना समय की पुकार है।
नक्सल पीडि़त क्षेत्रों में आदिवासियों के लिए निर्धारित पैसों में से कितना पैसा खर्च हो पाता है। एक अनुमान के अनुसार भ्रष्टाचार देष पर हर साल 2,50,000 करोड़ रूप्ये से ज्यादा का बोझ डाल रहा है। यह सरकारी पैसा बड़ी संख्या में गरीबों के पास पहंुचना था, लेकिन भ्रष्ठ लोगों की जेबों में पहुंच रहा है। 2009 में लोकसभा चुनाव में 10000 करोड़ रूप्ये की रकम खर्च हुई थी जिसमें से 1300 करोड़ रूपये चुनाव आयोग द्वारा, 700 करोड़ रूपये केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा, 8000 करोड़ राजनीतिक पार्टियों और 543 सीटों के उम्मीदवार द्वारा खर्च किये गये थे। 
संयुक्त राष्ट्र संघ के ताजे रिपोर्ट बतलाते हैं कि दुनिया एक बार फिर खाद्यान्न संकट के मुहाने पर खड़ी है। भारत जैसे विकासषील देषों में हर साल खाद्यान्न के दाम करीब 15 फीसदी तक बढ़ रहे हैं। ‘‘युनाइटेड नेषन वर्ल्ड फूड प्रोग्राम‘‘ का कहना है कि पूरे दुनिया में भूखे लोगों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है । इन दिनों मंहगाई लोगों का जीवन मुष्किल बना दिया है। मगर जब सट्टा बाजार में कमोडिटी (वस्तुओं) के दाम बढ़ते हैं तो बाजार से जुड़े लोग मुनाफा काटते हैं। मुनाफाखोरी का यह खेल खाद्यान्न संकट का अहम कारण है। संयुक्त राष्ट्र संघ के विषोषज्ञों का मानना है कि कमोडिटी मार्केट का खेल ही दुनिया में भूख व खाद्यान्न संकट तेजी से बढ़ा रहा है। यूएन विषोषज्ञों के अनुसार दुनिया भर में पेंषन, बड़ी निधियां व बड़े बैंकों ने भारी मात्रा में जिस कमोडिटी बाजार में पैसा लगाया है इसके चलते खाद्यान्न के मामले में अस्थिरता बढ़ रही है।यूएनडीए के रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में 2 करोड़ 20 लाख मीटिक टन अनाज की कमी है। पूरी दुनिया में एक तरफ विकास का ढिंढोरा पीटा जा रहा है वहीं एक बड़ी आबादी को पेट भर खाना तक नसीब नहीं है। इन सभी मानव निर्मित समस्याओं के समाधान के उपाय हमे अब तलाषने ही होंगे।
आज अगर हम विकास की बात करते हैं तो उस विकास में सिर्फ सिमित लोगों का विकास ही शामिल हैं, संपन्नता की पहुंच सिर्फ कुछ ही लोगों तक सिमित है और देष की बाकी जनता उसी बदहाल जीवन जीने के लिए मजबूर है, देष की आजादी के 65 वर्ष पूर्ण करने के बाद भी साक्षरता का लक्षित दर अभी तक हासिल नही किया जा सका है, यूनेस्को के ताजे आंकड़े बताते हैं कि भारत अभी तक मात्र 65 फीसदी साक्षरता का दर हासिल कर सका है, जो कि लक्ष्य से कोसो दूर है। 
ग्रामीण भारत की समस्याओं को प्रखर ढंग से उठाने वाले व मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध अंग्रेजी पत्रकार पी. साईंनाथ ने भी मीडिया के कारपोरेटीकरण की प्रवृत्ति पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए पिछले दिनों कहा था कि पिछले कुछ वर्षो से यह देखा जा रहा है कि, मीडिया आम आदमी से दूर होते चले जा रहे हैं, और पत्रकारों की नौकरी भी इसमें काफी असुरक्षित हो गई है। पिछले दो वर्षों में देशभर में करीब 3 हजार से अधिक पत्रकारों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी है। इसका सबसे बड़ा कारण मीडिया का बाजारवाद के प्रति बढ़ती आस्था है। आज मीडिया विज्ञापन, बालीवुड और कारपोरेट घराने तक सीमित हो गया है। वह कुछ वर्षों से इतना व्यावसायिक होता जा रहा है कि खबरों की खरीद फरोख्त से नहीं बच सकता। आजादी के बाद इतना बड़ा कृषि संकट देश में पैदा नहीं हुआ था आर्थिक मंदी के दौर में 5 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरी गंवाई लेकिन मीडिया के लिए यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है । अधिकतर अखबारों में कृषि तथा आम जनता से जुड़े मुद्दों को कवर करने के लिए पूर्ण कालिक पत्रकार नहीं है। यहां तक कि अंग्रजी के दो बड़े अखबारों में तो रिसेषन, आर्थिक मंदी के इस्तेमाल पर रोक लगी है। कारपोरेट जगत ने मीडिया का अपहरण कर लिया है। उन्होंने कहा कि आज मीडिया में आदिवासियों और दलितों का एक भी प्रतिनिधित्व नहीं है। आज भुखमरी, गरीबी, नक्सली हिंसा के सवाल गौंण होकर रह गये है। आज नक्सलवाद चरम पर है देष में इस पर बहस तो खूब हो रहे हैं राष्ट्रीय गोष्ठियां आयोजित की जा रहीं है कि आखिर इन सबका निदान कब तक संभव है।

लेखक परिचय- लेखक डॉ. आशुतोष मंडावी कुषाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विष्वविद्यालय, रायपुर छत्तीसगढ़ के स्थापना से ही जुडे़ हुए हैं और वर्तमान में विज्ञापन एवं जनसंपर्क अध्ययन विभाग के विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत हैं। आपकी सामाजिक मुद्दों पर आधारित लेखन में गहरी रूचि है समय-समय पर आपके लेख विभिन्न पत्र-पतिकाओं प्रकाषित होते रहते हैं। 

उदारीकरण के दौर में कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व की भूमिका

‘‘उदारीकरण के दौर में कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व की भूमिका‘‘

वैष्वीकृत अर्थव्यवस्था के इस बदलते हुए आर्थिक एवं व्यावसायिक माहौल में किसी संस्थान के जनसंपर्क महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नई पीढ़ी के पेषेवर उद्योग प्रबंधक अगर व्यवसाय में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो बेहतर सामाजिक उत्तरदायितव की उपयोगिता के सिद्धांत को स्वीकार करना पड़ेगा। उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के इस दौर में जब व्यावसायिक चातुर्य अधिक महत्वपूर्ण हो गया है, एैसे में हमारा देष आर्थिक अलगाव में नहीं जी सकता। इसे शेष विष्व के समकक्ष आने के लिए हमारी अर्थव्यवस्था में  गुणात्मक परिवर्तन करने की साहसिक पहल करनी होगी। इस नए आर्थिक वातावरण में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए भारतीय कम्पनियों को अपनी व्यावसायिक नीतियों के साथ-साथ संगठनात्मक ढांचागत नीतियों में भी गुणात्मक सुधार लाना आवष्यक है।

लोक-जीवन में जनसंपर्क की व्यवस्था को हमेंषा से ही स्वीकारा गया है। बच्चे के जन्म से लेकर विविध संस्कारों से मृत्युपर्यन्त उसके समस्त जीवन या किसी भी मनुष्य का जीवन बिना जनसंपर्क के विविध वृत्तियों के अधूरा ही रह सकता है। लोकजीवन में जनसंपर्क का व्यापक रूप त्यौहारों , उत्सवों और मेलों के रूप में देखा जा सकता है, जिनके माध्यम से नई पीढ़ी अपनी संास्कृतिक मर्यादाओं से परिचित होती है। यही नहीं महात्मा बुद्व (ई.पू. 623-543)और आदि शंकराचार्य (ईसवीं 623-543) के अभियानों और देष भ्रमण को जनसंपर्क या लोकसंपर्क की दृष्टि से देखना उचित होगा, क्योंकि दोनों ही व्यक्तियों ने चारों दिषाओं में संपर्क के लिए देष-भ्रमण के साथ-साथ जनसमुदायों में भाषण दिये तथा निकट संपर्क भी किया तथा पारस्पर मतान्तरों के भ्रमों का निवारण किया। प्राचीनकालीन पाष्चात्य देषों असीरिया, बैबीलोन और सुमेरिया आदि में नरेषों द्वारा अपने कीर्ति के प्रसार के लिए काव्य रचना लिखवाने और मूर्तियां निर्मित कराने का कार्य भी जनसंपर्क का एक माध्यम था।जनसंपर्क कार्य का सर्वप्रथम प्रवर्तन सन् 1903 ई. में पार्कर एण्ड ली ने किया। सन् 1916 में आधुनिक जनसंपर्क परामर्ष का कार्य इवीली, हैरिष एण्ड ली द्वारा आरंभ किया गया। भारत में जनसंपर्क की आधुनिक रूप में स्थापना सन् 1912 में टाटा आइरन एण्ड स्टील कंपनी के सामुदायिक संपर्क कार्यक्रम से आरंभ होती है। 
वर्ष 1950-1970 तक भारत में जनसंपर्क अपनी शैषवास्था में था। आज जिस तरह का जनसंपर्क का विकास हुआ है इसका अनुमान लगाना लगभग असंभव था। उदारीकरण, भूमण्डलीकरण और सूचना तकनीक ने संपूर्ण विष्व को वैष्विक ग्राम में बदल दिया है। आज विष्व आर्थिक क्षेत्र में भारत की उपेक्षा नहीं किया जा सकता है क्योकि यहां उत्पादकों के लिए सक्रिय बाजार मौजूद है। इस कारण यहां विदेषी निवेष की अपार संभावनाएं हैं। आज आर्थिक बाजार एक नई दृष्टि से करवट ले रहा है। इन सभी के परिणामस्वरूप देष में बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा बड़े व्यवसायिक समूहों जैसे टाटा, मिततल, रिलायंस, गोदरेज, विप्रो और इसी तरह की अन्य समूहों के मध्य विलय का वातावरण बना है। जिसके कारण कई नये मु़द्दे उभरकर सामने आये है। अतः इन सभी बदलते परिदृष्य में जनसंपर्क की भूमिका में भी बदलाव आया है जोकार्पोरेट जनसंपर्क के रूप में हमारे सामने है। कार्पोरेट जनसंपर्क को स्थापित करने का श्रेय जार्ज वेस्टिंग हाउस को जाता हैं इन्होंने वर्ष 1889 में अपनी इलेक्ट्रिक कार्पोरेषन की स्थापना की थी। वर्ष 1886 में अपनी संस्था को संगठित किया था। वर्तमान समय में उद्योगों, संस्थाओं, राजनीतिक दलों और व्यवसाय में निचले स्तर पर भी जन स्वीकृति की आवष्यकता है। इसी पर संस्थान और संगठन की सफलता निर्भर करती है। कार्पोरेट जनसंपर्क वस्तुतः दो मुख्य बातों पर ध्यान देता है -
1. संस्थान की छवि निर्माण करना 
2. संस्थान की पहचान स्थापित करना। 

कार्पोरेट जनसंपर्क मुख्यतः प्रयास करता है कि संगठन की छवि एवं पहचान स्थापित हो। छवि निर्माण स्वतः जन मस्तिष्कों की उपज हैं। यहां जनसंपर्क का मुख्य कार्य अपने जन के मध्य संगठन की छवि कैसी है ? जनता संगठन के बारे में क्या सोचते हैं ? अतः कार्पोरेट जनसंपर्क यह प्रयास करता है कि संगठन की छवि और विष्वनीयता हमेषा बनी रहेे।व्यापारिक मामलों की प्रबंध व्यवस्था में कंपनी, संस्थान और जनसमुदाय के बीच संपर्क आज के युग का महत्वपूर्ण कार्य है। किसी भी औद्योगिक संगठन के सामुदायिक संपर्क के क्षेत्र में स्थानीय समुदाय के लिए कल्याणकारी योजनाओं से लेकर सामाजिक जीवन स्तर को उंचा उठाने के स्थाई प्रयासों को लिया जा सकता है। जिसमें जनसमुदाय के अधिक से अधिक व्यक्तियों को रोजगार के साधन उपलब्ध कराना, औषधालय, विद्यालय, आवास तथा स्वच्छ पानी जैसे मूलभूत सुविधाओं को सुनिष्चित करना शामिल है। 
एक आदर्ष संगठन को जन समुदाय के प्रति निम्नांकित सामाजिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति किया जाना चाहिए-
1. जनसमुदाय को कंपनी के व्यापार के लाभों में भागीदार होने के पूरे अवसर उपलब्ध कराये जाना चाहिए। इस दृष्टि से लोगों को रोजगार की सहूलियत दी जा सकती है। उन्हे कंपनी के उत्पाद से संबंधित ठेके या दूसरे काम दिये जा सकते हैं।
2. जन समुदाय को स्वास्थ्य, शैक्षणिक, शहर की साफ-सफाई तथा अन्य सामाजिक और सांस्कृतिक सुविधाएं देकर लोगों के जीवन स्तर को उपर उठाने में योगदान दे सकती है।
3. जन समुदाय के साथ मधुर और स्थायी संबंध बनाये रखने के लिए कंपनी को हमेषा ही लोगों से बातचीत करते रहना चाहिए। यदि वे कोई सुझाव देते हैं तो उन्हें यह भी बतलाया जाना चाहिए कि उनके सुझावों के अनुसार क्या कार्यवाही की गई है।
4. कंपनी को प्राकृतिक नैसर्गिक स्रोत साधनों का विवेक पूर्वक दिषा में ही उपयोग करना चाहिए ताकि बहुमूल्य स्रोत दीर्घकाल तक संरक्षित रहें और उस क्षेत्र के भौगोलिक पर्यावरण को किसी प्रकार की हानि न हो।
5. कंपनी के संयत्र, कार्यालय, फैक्टी, वर्कषाप आदि के समीप रहने वाले जन समुदाय को ऐसा ही समझना चाहिए मानों वे कंपनी के व्यापार तथा प्रगति में सहभागी हैं।
6. कंपनी को अपना व्यापार तथा धंधे से संबंधित कामकाज इस ढंग से करना चाहिए ताकि पास पड़ोस के जन समुदाय को कोई विषेष असुविधा न हो।
7. कंपनी के चारों ओर के पर्यावरण की केवल सुरक्षा ही नहीं की जानी चाहिए बल्कि उसे इस रूप में विकसित भी किया जाना चाहिए ताकि कंपनी और जनसमुदाय दोनों को उसका लाभ मिल सके।

उदारीकरण के इस दौर में अंतर्राष्ट्रीय परिदृष्य के सामने कार्पोरेट जनसंपर्क एक चुनौती लेकर आया है। विष्व की शीर्ष कंपनियों के मध्य होड़ लगी हुई है। विषेषकर उदारीकरण के बाद भारत ही नहीं विष्व के परिदृष्य में भी बदलाव आया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में तथा भारतीय कंपनियों ने विदेषों में अपना पैर जमाना शुरू कर दिया है। वहीं निजी क्षेत्रों के बैंकों, बीमा कंपनियों, बिल्डर्स, शैक्षणिक संस्थानों और वित्तीय कंपनियों की आपसी प्रतिस्पर्धा में कार्पोरेट जनसंपर्क का दायित्व और भी अधिक बढ़ गया। आज स्थिति यह है कि मीडिया, संगीत, फिल्म, साफ्टवेयर उपभोक्ता वस्तुओं से लेकर औद्योगिक क्षेत्र, कार्पोरेट घराने, सेवा क्षेत्रों में कार्पोरेट जनसंपर्क की उपयोगिता बढ़ी है।  आज ज्यादातर अखबार, न्यूज चैनल व तमाम प्रिंट व इलेक्टानिक माध्यमों में व्यवसाय से संबंधित खबरों को प्रमुखता से प्रकाषित व प्रसारित किया जाता है।  



-लेखक
डॉ. आषुतोष मंडावी, सहायक प्राध्यापक, विज्ञापन एवं जनसंपर्क अध्ययन विभाग, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विष्वविद्यालय, रायपुर, छत्तीसगढ़

विकास पत्रकारिता

विकास का शाब्दिक अर्थ प्रसार या फैलाव होता है । जब हम जनसंचार के संदर्भ में विकास शब्द का प्रयोग करते हैं तो इसका अर्थ बहुत अधिक व्यापक हो जाता है। जीवन की प्रत्येक क्षेत्र में होने वाली गतिविधियों को विकास से जोडा जा सकता है। व्यक्ति के बौद्विक विकास की बात चलती है, तो देश में शिक्षा, संचार-माध्यम तथा साहित्य के क्षेत्र में हो रही गतिविधियॉं हमारे सामने होती है। उसके सांस्कृतिक विकास, ललित कलाओं -कला, संगीत, नृत्य,रंगमंच आदि के विकास के लिए हो रहे कार्यो का हवाला दिया जाता है। सामाजिक विकास के संदर्भ में बदलाव, बदलते सामाजिक संबंधों और मूल्यों का उल्लेख किया जाता हैं। भौतिक विकास को उद्योग, कृषि, औद्योगिकी, तकनीक, व्यापार आदि के विकास से जोड़ा जाता हैं। संक्षेप में, व्यक्ति की खुशहाली के समाचार या विकास की मुख्यधारा से कटे हुए लोगों की खबरे विकासात्मक जनसंचार का विषय बनती है। 

 विकास पत्रकारिता का ऐसा क्षेत्र है, जिसे आजादी मिलने के बाद समाचार पत्रों को सबसे अधिक महत्व देना चाहिए था जो कि नहीं हो पाया। राष्ट्र को जिस ढ़ंग से सुनियोजित रुप में लूटा और अनेक दृष्टियों से बर्वाद किया गया था जिसे फिर से सजानंे संवारने के उद्देश्य से राजनीतिज्ञों के साथ मीडिया जगत की काफी महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए थी। शुरु के कुछ वर्षों में ऐसी स्थिति रही भी लेकिन उसके बाद राजनीतिज्ञों का जो महत्व मीडिया जगत ने स्वीकार किया उसके बाद तो आज हालत ऐसी बन गयी कि चाहें समाचारपत्र को किसी भी छोर से पढ़ना शुरु करें सिवाय राजनीति के और कुछ पढ़नें को नहीं मिलेगा। 
सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही समान रुप से समाचार पत्र के कालमों को घेरंे पड़े हैं। राजनीतियों के वक्तव्य, भाषण, आरोप प्रत्यारोप आन्दोलन आदि सभी को समाचार जगत प्रमुखता से प्रकाशित करता रहा है। दूसरे नम्बर पर हिंसा तथा अन्य जघन्य अपराधिक घटनाएं तीसरे या कभी-कभी चौथे स्थान पर विकास संबंधी कार्यक्रमों तथा उपलब्धियों को भी समाचार पत्रों के कालम में स्थान मिल जाता है। विकास संबंधी समाचारों से कहीं अधिक प्रमुखता सिनेमा जगत के पुरुष और महिलाओं को मिल रहा हैं। शर्म की बात तो यह है कि बहुत सी पत्र पत्रिकाओं ने तो गपशप शीर्षक से नियमित कालम शुरु किये हुए हैं लेकिन विकास संबंधी रचनात्मक गतिविधियों के लिए स्थान नहीं हैं।
     विकासात्मक पत्रकारिता या विकासात्मक समाचारों की उपादेयता व्यापकता और भूमिका को रेखांकित करते हुए द्वितीय प्रेस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया है कि-  विकास संबंधी रपट में सही और गलत काम की पूरी तस्वीर प्रस्तुत करनी चाहिए। उसमें आम आदमी के जीवन को प्रभावित करने वाले विभिन्न कार्यक्रमोें की विभिन्न परिस्थियों मेें विभिन्न स्थानों पर सफलता और विफलता के कारणों की छानबीन होनी चाहिए। हर व्यक्ति यह जानना चाहता कि चारों ओर ऐसा क्या घटित हो रहा है जिसका प्रभाव उस पर पड़ता है या पड़ सकता है। उसके जीवन में सुधार या परिवर्तन के लिए भी कोई संभावना बन रही है या बनने की प्रकिया में है। ऐसी बातों को जानने की भी उसमें जिज्ञासा होती है जो भले ही सनसनीखेज और रोमांचक न हो परंतु उसके जीवन में बदलाव का संकेत देती हो। ऐसे समाचार जो स्थितियों में बदलाव के प्रयत्नों एवं उनकी सफलता विफलता पर प्रकाश डाले किसी भी समाचार पत्र या माध्यम के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। आमतौर से विकासात्मक समाचारों का अर्थ उन समाचारों से लिया जाता है जो खेती उद्योग आदि के क्षेत्र में विकास के आकड़े प्रस्तुत करते हैं। परंतु वस्तुतः यह विकास का मात्र एक पक्ष है। दूसरा और अधिक वास्तविक पक्ष यह जानना है कि विभिन्न विकास योजनाओं के द्वारा समाज के विभिन्न वर्गो के आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव तथा विकास के क्रम में कौन आगे बढ़ा और कौन पीछे छुट गया है। 
           वर्तमान समय में मीडिया का क्षेत्र एवं परिधि बहुत व्यापक हो गया है। उसे किसी सीमा में बांधा नहीं जा सकता। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हो रही हलचलों, संभावनाओं पर विचार कर एक नई दिशा देनें का काम मीडिया के क्षेत्र में आ जाता है। मीडिया जीवन के प्रत्येक पहलू पर नजर रखे हुए है। इन अर्थों में उसका क्षेत्र बहुत ही व्यापक एवं विस्तृत है। मीडिया तमाम जनसमस्याओं एवं सवालों से जुड़ी होती हैं, समस्याओं को प्रशासन के सामने प्रस्तुत कर उस पर बहस के लिए प्रेरित करती हैं। समाज जीवन के हर क्षेत्र में आज मीडिया की महत्ता स्वीकारी जा रही हैं। आर्थिक, समाजिक,राजनीतिक, विज्ञान, कला सभी क्षेत्र मीडिया के दायरे में हैं। इन संदर्भो में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया का महत्व खासा बढ़ गया है। नई आर्थिक नीतियों के प्रभावों तथा जीवन में कारोबारी दुनिया एवं शेयर मार्केट के बढ़ते हस्तक्षेप ने इसका महत्व बढ़ा दिया है।
      अर्थव्यवस्था प्रधान युग होनें के कारण प्रत्येक प्रमुख समाचार-पत्र दो चार पृष्ठ आर्थिक गतिविधियों के लिए आरक्षित कर रहा है। इसमें आर्थिक जगत से जुड़ी घटनाओं, कम्पनी समाचारों, शेयर मार्केट की सूचनाओं, सरकारी नीति में बदलावों, मुद्रा बाजार, सराफा बाजार एवं विविध मण्डियों से जुडं़े समाचार छपतें हैं।     
       जैसा कि हमे विदित है भारत एक ग्रामीण एवं संस्कृति प्रधान देश है। हमारी कुल जनसंख्या का बीस प्रतिशत भाग ही शहरों में है जबकि शेष अस्सी प्रतिशत जनता गांवों में निवास करती है। आजादी से लेकर अब तक सरकार ने गांवों के विकास के लिए बहुत कुछ किया हैं। जिसे क्षेत्रीय समाचार पत्रों ने विस्तार से छापा है, और ऐसे समाचारपत्रों के माध्यम से आज जिन लोगों को इस बात की जानकारी भी मिली है, जो सरकार के विकास कार्यक्रमों से किसी कारणवश अछूते रह गये और भूमिहीन लोगों के लिए जमीन देने का कार्यक्रम, नलकूप, खाद, अच्छी किस्म के बीज कर्ज की सुविधाएं नहीं ले सके। किसान की नजर में जमीन का माता जैसा सम्मान होता हैं। जमीन के संबंध में जों कल्याणकारी कुछ निर्णय सरकार ने किये यदि उनकी सचमुच जानकारी समाचारपत्रों के माध्यम से उन तक पहुंच जाये तब इससे समाज कल्याण तथा राष्ट्रीय विकास में और गति आ पायेगी। कुछ ऐसे बडे़ं समाचारपत्र भी है, जिन्होंने ’कृषि संवाददाता’ नियुक्त कर रखे हैं। लेकिन ये संवाददाता अपना कार्यक्षेत्र शहरों तक ही सीमित रखतें हैं। मुख्य रुप से सरकार के कृषि विकास द्वारा जारी होने वाली विज्ञप्तियों की भाषा बिगाड़ या संवार कर समाचार के रुप में छापते हैं, या फिर कभी राष्ट्रीय और अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर कीटनाशक या उर्वरक का उत्पादन करने वाली बड़ी कम्पनियों के निमंत्रण पर विदशों में होने वाली संगोष्ठियों में भाग लेनें जाते हैं। 
ग्रामीण अंचलों में जो तेजी से विकास नहीं हो सका, उसका एक मात्र कारण गरीबी नहीं है, बल्कि अज्ञानता की वे जंजीरें भी हैं जिन्हांेने वहां के लोगों को विकास ओर बढ़ने से रोकने में सबसे बड़ी बाधा पेश कर रखीं हैं और लकीर के फकीर बने हुये हैं। गरीबी और अज्ञानता की दुधारी तलवारों के बीच फसे ग्रामीण अंचल आज वह सब कुछ प्राप्त नहीं कर सके जिसके वे सही अर्थों में हकदार हैं। ऐसे लोगों की आवश्यकता सबसे बड़ी यह होती हैं कि पत्रकार और साहित्यकार उनके बीच जाकर उनके कष्ट और अनुभवों को प्रकाश में लाए, जिससे विकास से संबंद्ध लोगों का ध्यान उनकी ओर जाए विकास पत्रकारिता के लिए क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। 
      ग्रामीण अंचलों में अज्ञानता के कारण विकास होना तो बहुत दूर की बात हैं वहां तो आम जीवन में इतने कष्ट आते हैं, कि लोग उसी कुचक्र से अपने आपको नहीं बचा पाते हैं। जिस समाज में किसी महामारी का कारण भूत-प्रेत मानें जायें अथवा किसी एक की बीमारी को दूर करने के लक्ष्य से किसी एक मासूम की हत्या तक कर डाली जाये तब ऐसे समाज में विकास की दिशा कहां से और कैसे पहुंचेगी ? यह एक अपने आप में बहुत बड़ी चुनौती हैं। ऐसे कुचक्रो को ध्वस्त करने के लिए टिकाऊ विकास की जरूरत है। जो कि विकास पत्रकारिता के माध्यम से ही दूर हो सकता है। दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे देश में ऐसा नहीं हो पा रहा हैं। जो कुछ होना शुरू हुआ भी है उसकी गति बहुत धीमी हैं।
प्रश्न यह है कि जब तक व्यक्ति लगातार गांव में किसानों के साथ रहकर आवश्यकताओं और परेशानियों को नहीं समझता हैं। तब उन्हें दूर करने के लिए वह ठोस कदम उठाने की स्थिति में नहीं आ सकता। विकास की खुशबू को गांव गांव पहुचाने के लक्ष्य से बहुत पहलें भारत सरकार नें सबसे बडें-बडें मंत्रालयों जैसे कृषि, रेल, समाज कल्याण, योजना आदि के मुखपत्रों का प्रकाशन शुरु कर दिया था। उदाहरण के लिए योजना मंत्रालय के अधीन ‘‘योजना‘‘ नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया जो आधा दर्जन भाषाओं में छपनी शुरु हुई। कृषि मंत्रालय की पत्रिका ‘‘खेती‘‘ हिन्दी में तथा अंग्रेजी में ‘‘इण्डिन फार्म जनरल‘‘ तथा ग्रामीण विकास के क्षेत्र में ‘‘कुरुक्षेत्र‘‘ इसी प्रकार समाज कल्याण विभाग की एक पत्रिका का अलग से प्रकाशन आरम्भ हुआ। ऐसी पत्रिकाओं में जानकरी तो काफी रही लेकिन उसे प्रस्तुत करने का तरीका अधिक आकर्षक नहीं रहा। भारत सरकार ने सभी महत्वपूर्ण विभागों की गतिविधियों की आवश्यक जानकारी जनसाधारण तक पहुंचानें के लक्ष्य से जो बहुत ही साप्ताहिक पाक्षिक और मासिक पत्रिकाएं आरंभ की वे सभी हर दृष्टि से सफल सिद्ध हुई हैं। साधारण सी भाषा, जो कम पढ़े लिखे व्यक्ति की भी समझ में आ सके। अधिक से अधिक विकास संबंधी जानकारी और वह भी बहुत कम मूल्य पर उपलब्ध कराकर प्रकाशन विभाग ने सरकार की नीतियों का पालन किया हैं।
      एक बात और देखनें में आयी है, कि कुछ राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्रों की विशेष रुचि अभी तक विकास की ओर नहीं हो सकी हैं। कुछ समाचार पत्र एैसे हैं जिनके कालम ही क्या उनके पन्ने उन सामाचारों से भरें हुए होते हैं जो महानगरों के भव्य समारोंह पर आधारित होती हैं अथवा वातानुकूलित होटलों में छलकतंे जामों के बीच संवाददाताओं को जो कुछ पढ़ाया और सुनाया जाता हैं। एक बार नई दिल्ली से प्रकाषित एक अखबार में कही दूर दराज जाकर नहीं बल्कि दिल्ली से चंद किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव छतेरा को गोद ले लिया। कुछ समय बाद एक रिपोर्ट उस गांव के विकास पर नियमित रुप से खबर छापनें लगे। इस मामूली सी घटना को भी उस समाचार पत्र के संपादक ने इस तरह जताने की कोशिश की जैसे इस समाचार पत्र में कोई बहुत बड़ी चुनौती को स्वीकार कर लिया था। यह एक आम मान्यता है, कि अंग्रेजी दैनिक समाचारपत्रों की तुलना में हिन्दी तथा अनेक क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार पत्रों में विकास पत्रकारिता को कहीं अधिक स्थान प्रदान किया है। ’राजस्थान पत्रिका’ का अध्ययन करनें से तो यह संकेत भी मिलता हैं कि समाचार पत्र के संपादक ने एक संवाददाता की जिम्मेदारी ही यह लगा दी है, कि वह हर सप्ताह ग्रामीण अंचलों की दौरे से लौटकर एक रपट देगें। काश कि ऐसा प्रयास देश के अन्य समाचार पत्र भी कर पातें। 
विकास पत्रकारिता के क्षेत्र में वहीं लोग अधिक सफल सिद्ध होगें जिनके सीनें में उपेक्षित तथा अविकसित क्षेत्रों के प्रति विेशेष हमदर्दी हैं। जिला मुख्यालयों से लेकर प्रदेश अथवा राष्ट्रीय मुख्यालयों में बैठे लोग विकास पत्रकारिता को आगे नहीं बढ़ा पायेगें चूकि ग्रामीण अंचल जहां विकास की बहुत संभावनायें हैं। वहां जाकर जो भी पत्रकार थोड़ा बहुत कार्य करके वहां की समस्याओं के प्रति समाज और सरकारी तंत्र को जानकारी उपलब्ध कराता है। जो प्रशंसनीय कहा जाता हैं, और बहुत सी संस्थाएं उन्हें सार्वजनिक रुप से सम्मानित भी करती हैं। इस क्षेत्र में आवश्यकता इस बात की है, कि अधिक से अधिक संस्थानों को आगे आना चाहिए इस क्षेत्र में समाचार जगत की ही एक संस्था में कुछ कदम बढ़ायें हैं। कलकत्ता और दिल्ली से एक साथ प्रकाशित ’स्टैटमैन’ समाचार पत्र में एक प्रशंसनीय कार्य यह किया हैं, कि जो पत्रकार ग्रामीण अंचलों की समस्या को लेकर अच्छा लेख लिखंेगें उन्हें सम्मानित किया जाए इस संस्था ने यह कार्य शुरु करके निश्चय ही विकास पत्रकारिता को प्रोत्साहित किया हैं।
ग्रामीण भारत की समस्याओं को प्रखर ढंग से उठाने वाले व मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध अंग्रेजी पत्रकार पी. साईंनाथ ने मीडिया के कारपोरेटीकरण की प्रवृत्ति पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए पिछले दिनों कहा था कि पिछले कुछ वर्षो से यह देखा जा रहा है कि, मीडिया आम आदमी से दूर होते चले जा रहे हैं, और पत्रकारों की नौकरी भी इसमें काफी असुरक्षित हो गई है। पिछले दो वर्षों में देशभर में करीब 3 हजार से अधिक पत्रकारों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी है। इसका सबसे बड़ा कारण मीडिया का बाजारवाद के प्रति बढ़ती आस्था है। आज मीडिया विज्ञापन, बालीवुड और कारपोरेट घराने तक सीमित हो गया है। वह कुछ वर्षों से इतना व्यावसायिक होता जा रहा है कि खबरों की खरीद फरोख्त से नहीं बच सकता। आजादी के बाद इतना बड़ा कृषि संकट देश में पैदा नहीं हुआ था आर्थिक मंदी के दौर में 5 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरी गंवाई लेकिन मीडिया के लिए यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है । अधिकतर अखबारों में कृषि तथा आम जनता से जुड़े मुद्दों को कवर करने के लिए पूर्ण कालिक पत्रकार नहीं है। यहां तक कि अंग्रेजी के दो बड़े अखबारों में तो रिशेसन, आर्थिक मंदी के इस्तेमाल पर रोक लगी है। कारपोरेट जगत ने मीडिया का अपहरण कर लिया है। उन्होंने कहा कि आज मीडिया में आदिवासियों और दलितों का एक भी प्रतिनिधित्व नहीं है। आज भुखमरी, गरीबी, नक्सली हिंसा के सवाल गौंण होकर रह गये है। आज नक्सलवाद चरम पर है देष में इस पर बहस तो खूब हो रहे हैं राष्ट्रीय गोष्ठियां आयोजित की जा रहीं है कि आखिर इन सबका निदान कब तक संभव है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के ताजे रिपोर्ट बतलाते हैं कि दुनिया एक बार फिर खाद्यान्न संकट के मुहाने पर खड़ी है। भारत जैसे विकासशील देशों में हर साल खाद्यान्न के दाम करीब 15 फीसदी तक बढ़ रहे हैं। ‘‘युनाइटेड नेशन वर्ल्ड फूड प्रोग्राम‘‘ का कहना है कि पूरे दुनिया में भूखे लोगों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है । इन दिनों मंहगाई लोगों का जीवन मुश्किल बना दिया है। मगर जब सट्टा बाजार में कमोडिटी (वस्तुओं) के दाम बढ़ते हैं तो बाजार से जुड़े लोग मुनाफा काटते हैं। मुनाफाखोरी का यह खेल खाद्यान्न संकट का अहम कारण है। संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेषज्ञों का मानना है कि कमोडिटी मार्केट का खेल ही दुनिया में भूख व खाद्यान्न संकट तेजी से बढ़ा रहा है। यूएन विशेषज्ञों के अनुसार दुनिया भर में पेंशन, बड़ी निधियां व बड़े बैंकों ने भारी मात्रा में जिस कमोडिटी बाजार में पैसा लगाया है इसके चलते खाद्यान्न के मामले में अस्थिरता बढ़ रही है। यूएनडीए के रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में 2 करोड़ 20 लाख मीटिक टन अनाज की कमी है। पूरी दुनिया में एक तरफ विकास का ढिंढोरा पीटा जा रहा है वहीं एक बड़ी आबादी को पेट भर खाना तक नसीब नहीं है। इन सभी मानव निर्मित समस्याओं के समाधान के उपाय हमे अब तलाशने ही होंगे।
आज अगर हम विकास की बात करते हैं तो उस विकास में सिर्फ सिमित लोगों का विकास ही शामिल हैं, संपन्नता की पहुंच सिर्फ कुछ ही लोगों तक सिमित है और देश की बाकी जनता उसी बदहाल जीवन जीने के लिए मजबूर है, देश की आजादी के 68 वर्ष पूर्ण करने के बाद भी साक्षरता का लक्षित दर अभी तक हासिल नही किया जा सका है, यूनेस्को के ताजे आंकड़े बताते हैं कि भारत अभी तक मात्र 65 फीसदी साक्षरता का दर हासिल कर सका है, जो कि लक्ष्य से कोसो दूर है। 
अनुसूचित क्षेत्रों में सरकार द्वारा जो उद्योग-धंधे स्थापित किये जा रहे हैं उनमें प्रभावित ग्रामीणों व विस्थापित परिवारों केा प्रदान की जाने वाली मुआवजा राशि की बात हो या विस्थापित परिवार के सदस्यों को नौकरी का मुद्दा हो या फिर विस्थापित परिवार के सदस्यों के शेयर होल्डिग तय करने की बात हो इस पर सरकार को वाकई गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है क्योकि किसी भी समुदाय के व्यक्ति के लिए आत्मसम्मानपूर्वक जीवन-यापन के लिए रोटी, कपड़ा और मकान के साथ-साथ आत्मसम्मान भी जरूरी है । हमारा देश सांस्कृतिक वैशिष्टयता वाला देश है जहां की संस्कृति अपने आप में विशिष्टता लिए हुए है यहां के लोकनृत्य ,लोकगीत, चित्रकला तथा लोककला ,शिल्पकला आदि को तथा उनसे जुड़ी तमाम विधाओं के साथ सहेजनेे की सबसे ज्यादा जरूरत है, क्योकि लोककलाओं को बचाना है और उन्हें जीवनोपयोगी रखना है तो उनके साथ जुड़े संस्कारों को भी बचाना होगा, तभी लोककलाओं को उसकी आत्मा के साथ बचाया जा सकता है। तभी सांस्कृतिक वैशिष्टयता को संरक्षित करने में हम सफल हो पायेंगे।
पारंपरिक लोककलाओं, लोकनृत्यो व लोकगीतों के विकास तथा संवर्धन हेतु हमारे विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा संचालित पाठ्यक्रमों में स्थान देने की जरूरत है, तथा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी गोंडी, हल्बी, भतरी जैसी बोलियों को संरक्षित करने भाषा व लोककला संस्थान स्थापित करने के प्रयास किये जाने की आवश्यकता है, क्योकि ये प्राचीन बोलियां, ये लोककलाएं, ये नृत्य, ये चित्रकला तथा मूर्तिकला हजारों वर्षों के अनुभवों को अपने में संचित तथा समाहित किये हुये हैं। सरकार द्वारा  लोककला संग्राहलयों, सांस्कृतिक केन्द्रों, लोकसंगीत नाटक अकादमी तथा लोककला वीथिका की स्थापना किये जाने की आवश्यकता है, जिससे लोगों में इन विलुप्त हो रही लोककलाओं के प्रति जागरूकता पैदा हो सके तथा साथ-साथ इसका भी ख्याल रखा जाना आवश्यक है कि बड़ी तेजी से उभरते महानगरीय संस्कृति की चकाचौंध का प्रभाव इन लोककलाओं पर न पडे । लोककलाओं तथा इन्हीं के जैसे ग्रामीण विधाओं को आज व्यवसाय का माध्यम बनाने हेतु भी आवश्यक कदम उठाने की जरूरत है जिससे इन विधाओं से जुड़े लोककलाकारों को आजीविका के साधन उपलब्ध हो सकेंगे तभी देश का सही मायने में विकास हो पायेगा। 
आज भारत जैसे विकासषील देश की अगर बात करें तो भारत में लगभग 80 प्रतिषत जनता अभी भी गांवों में निवास करती है और जहां साक्षरता का प्रतिशत भी  अमूमन यही दिखलाई पड़ता है। अन्य विकसित देश जैसे अमेरिका, रूस, जापान तथा चीन की अगर बात करें तो वहां भी आधारभूत विकास पर ज्यादा ध्यान दिया गया तथा सामुदायिक सहभागिता के आधार पर ही विकास के नये कीर्तिमान स्थापित किये गये, इसलिए आधारभूत विकास व सामुदायिक सहभागिता के सिद्धांत के बिना कोई भी देश विकास की ओर अग्रसर नहीं हो सकता है। नक्सलवाद आज छत्तीसगढ़ जैसे शांत राज्य के लिए ही नही बल्कि समूचे भारत देश के लिए नासूर बनता जा रहा है। सुंदर और शांत बस्तर आज नक्सली हिंसा के कारण युद्धभूमि में तब्दील हो गया है, आये दिन न जाने कितने आदिवासियों, ग्रामीणों व पुलिस कर्मचारियों की हत्यायें हो रही है या फिर कितने लोग अगवा कर लिये जा रहे है। इन सबका सकारात्मक हल हम सबको मिलकर ही ढूढना होगा। नही तो आने वाली पीढ़ीयां हमें कभी माफ नहीं कर पायंेगी। नक्सलवादियों और माओवादियों के द्वारा की जाने वाली हत्याओं का सिलसिला अभी भी जारी है। छत्तीसगढ में अभी गत वर्ष ही दरभा घाटी में एक बड़े राजनैतिक पार्टी के सभी बडे़ नेताओं का सामूहिक नरसंहार की घटना ने पूरे देश को चाैंका कर रख दिया तथा इसके साथ ही बस्तर से सुकमा के कलेक्टर रहे श्री एलेक्स पॉल मेनन को अगुआ किये जाने वाली घटना सेे नक्सलवादियों का घिनौना चेहरा देश के सामने उजागर हुआ है। इसी घटना से एक महीने पहले उड़ीसा से युवा विधायक को अगुआ किया गया था जिसे बड़ी मषक्कत के बाद छोड़ा गया था। माओवादियों के द्वारा 2005 से अब तक वे 2670 से भी ज्यादा लोगों की हत्या कर चुके हैं जिनमें 1680 से भी ज्यादा ग्रामीण व दूसरे लोग हैं और 1000 से अधिक सुरक्षा बलों के जवान शामिल हैं। 2010 में ही अगस्त तक माओवादी 460 से ज्यादा लोगों की हत्या कर चुके हैं जिनमें से सुरक्षा बलों के 167 जवान हैं और बाकी सामान्य नागरिक जिनमें वे ग्रामीण भी शामिल हैं जिनके बारे में उन्हें शक था  िक वे पुलिस के खबरी हैैं। लाल आतंक से ग्रस्त राज्यों में छत्तीसगढ में माओवादी सबसे ज्यादा सक्रिय हैं। वहां उन्होंने सुरक्षा बलों के सबसे ज्यादा जवानों को मारा है। उसके बाद पश्चिम बंगाल का नंबर आता है । इसके बाद ओड़ीसा है और फिर झारखण्ड और बिहार। 2009 में माओवादियों और नक्सलवादियों की हिंसा में करीब 1000 लोगों की मौत हुई है। इस आंकड़े में 392 नागरिक, 312 सुरक्षाकर्मी और 294 नक्सलवादी शामिल हैं। 2008 में उन्होंने 210 नागरिकों व 214 सुरक्षाकर्मियों को मारा जबकि 214 माओवादी भी मारे गये। 
इन सभी घटनाआंे को प्रमुखता से उठाने में समाचार पत्र पत्रिकाओं का बहुमूल्य योगदान रहा है और आने वाले समय में इस समस्या के निराकरण में महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। मीडिया ने समाज के प्रहरी के रूप में, कभी आईना, तो कभी जन जागरूकता के रूप में अपना स्थान बनाया हैं। हमारे भारत वर्ष में जनसंख्या अधिक होने के कारण इस क्षेत्र में कार्य का दायरा बढ़ा है, जिसके परिणामतः पत्र-पत्रिकाओं का मूल्य और भी महत्वपूर्ण स्थान निर्धारित करता है। चूकि ग्रामीण क्षेत्रों मंे अनेक प्रकार की विषमताएं ,अस्पृश्यता, सामाजिक, राजनीतिक व कुरीतियों का माया-जाल इतना फैल चूका है, जिसमें फंसकर ग्रामीण जन अपनी अधिकार या कर्म से विमुख हो जाते है और दोषपूर्ण रास्ते का चयन कर बैठतें है या उनको उनकी शिक्षा की अल्पज्ञता के कारण उनको संकटों का सामना करना पड़ता है। ग्रामीण जन भोले-भाले व निष्पक्ष विचारधारा वाले होते हैं। जिसके कारण उनको छले-जाने में थोडा सा भी समय नही लगता अर्थात ग्रामीण लोग किसी पर भी जल्दी विश्वास जता देते हैं। ऐसे समय में यदि समाचार-पत्र का साथ इन ग्रामीणें को मिल जाये तो इनको उचित राह मिल सकता है। और केवल उनकांे एक ही क्षेत्रों में नहीं,बल्कि सभी क्षेत्रों में जैसे - सामाजिक बुराइयॉं, धार्मिक प्रवचन, राजनीति के छल-कपट, राजकीय चक्रव्यूह, आर्थिक दुरावस्था तथा समाजद्रोही तत्वों के दुश्कृत्यों की पोल खोलनें, उनसे बचने, सचेत रहने तथा विपत्ति पड़नंे पर किसी ढंग से निकलने की शिक्षा देने का दायित्व भी आज का मीडिया महत्वपूर्ण तरीके से निभा सकता हैं।
    मीडिया देश के टिकाउ विकास के लिए निम्नांकित क्षेत्रों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका सिद्व कर सकती है-
1. कृषि विकास में सहायक-
 भारत एक कृषि प्रधान देष है जिसकी एक तिहाई आबादी कृषि कार्य में लगे है। ऐसे में इन किसानों के मध्य अनंेक प्रकार कृषि समास्याएं व अज्ञानता होती है, व कब किस मौसम में कौन सी फसल लें मृदा कैसी है कौन सी मृदा में क्या फसल लगया जाए उस फसल में कौन सी वैज्ञानिक उपकरण का सहारा ले फसल की बीमारी, कौन सी सावधानी रखें बीज की प्रमाणिकता बीज मिलने का केन्द्र और मृदा परीक्षण फसल चक्रण आदि से जुडी ऐसी हजारों सैकडों समस्याएं किसानों को होती है। जिनका उचित निराकरण होना जरूरी है अन्यथा किसानों की अव्यवस्था से भी परिचित है जिसका सीधा असर हमारे अर्थव्यवस्था पर पड़ता हैं ।
   यह तो एक यथा सत्य है कि ऐसे समाचारों का प्रसारण अधिकतर दृष्य और माध्यमों में ज्यादा आती है। जिसका लाभ केवल विद्युतीकरण तक ही सीमित है तथा जहां इनकी पहुॅंच नहीं है वहां उचित लाभ नहीं मिल पाता ।
अब बात आती है किसानों की जिनके पास सुविधा उपलब्ध नहीं है, उनके लिए समाचार पत्र-पत्रिका महत्वपूर्ण होतें हैं यह बात अलग है कि आज कल सारे अखबार कंपनी के विज्ञापन, रंगीन मसाला चित्र व अनैतिक समाचारों ने ले लिया है। कई अखबारों में तो ग्रामीणों के लिए उपयोगी समाचार नहीं मिलेगा, लेकिन कुछ अखबारों द्वारा इस वर्ग के लिए अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है । अतः ग्रामीण कृषक के लिए समाचार-पत्र मित्र जैसंे कार्य और समय-समय पर उचित जानकारी प्रकाषित कर रहें हैं।  


2. युवाओं के विकास में सहायक-

        समाचार पत्र-पत्रिकाओं में विकासात्मक खबर हर साल सैकड़ों ग्रामीण युवक-युवतियों को रोजगार उपलब्ध कराता है लेकिन ग्रामीण अंचलों में संचार व्यवस्था का पूर्णतः अभाव होने के कारण  उनसे दूर हो जाते है। भारत में ऐसे कई गांव मिल जायेंगें जहां अखबारें अब तक नही पहुॅंच पा रहा है। अतः रोजगार के अवसर से दूर हो जाते है। पर भी कुछ हद तक रोजगार उपलब्ध कराने में सहायक सिद्ध हो सकता है।

3. सूचना और जानकारी प्रदान करने में सहायक-

      वर्तमान समय पूर्ण रूप से सूचना संचार प्रौद्योगिकी का युग है। सारा विश्व एक गांव के रूप में बट गया है, जिसे ग्लोबलाइजेषन कहते है। आज गांव हो या शहर या फिर विदेश सभी को विश्व की हलचल जानने की उत्सुकता होती है। ऐसे में ग्रामीण क्षेत्र के लोगों में भी अपने आस-पास की घटनाओं को जानने की इच्छा होती है। जिसको समाचार-पत्र पत्रिका और मीडिया के अन्य माध्यमों से जाना जाता है। चूंकि हमारी सरकारें समय-समय पर विभिन्न प्रकार के कार्य योजनाओं का संचालन करते हैं। जिनका लक्ष्य समाज के अंतिम छोर के व्यक्तियों तक पहुंचाने की होती है। जिसका लाभ वे आसानी से ले सके। ग्रामीण क्षेत्रों में कई बार सूचना व जानकारी के अभाव में अजीबों गरीब घटनाएं घट जाती है तथा लोग विपत्ति में फस जाते है। इस प्रकार की परिस्थिति से निपटने में मीडिया सहायक सिद्व हो सकता है।

4. सामाजिक विकास में सहायक-

          ग्रामीण परिवेष में समाचार-पत्र का विषेश महत्व होता है। एक ओर जहां शहरी एवं महानगरी जीवन में बहुत तेजी से बदलाव आया है। शहरी जीवन बिना सभ्यता के पल बढ़ रहा है, वही दूसरी तरफ ग्रामीण जीवन में अभी भी अपनी परंपरा व सामाजिक भाव विद्धमान है। गांव में सहजता व स्वाभिमान कायम है गांव में कृषक वर्ग ज्यादा होते है।  तथा गांव में जमीदार व उच्च धन संपत्ति वाले लोग प्रायः कम होते है। गांव में भी राजनीति व गुट बाजी छा रही है । ऐसे में महत्वपूर्ण उस गांव में सामाजिक व्यवस्था होती है वहां की पंचायतंे। ऐसे में गांव में अनेक प्रकार के हलचल स्वाभाविक रूप से होनी है। जिसको समाचार पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से घटनाओं या समस्याओं का निराकरण कर वहां की सामाजिकता को कायम रखने में सहायक हो सकता है। 

5. सांस्कृतिक विकास में सहायक-
          हमारे ग्रामीण भारत पूर्णतः प्राचीन परंपरा, रीति रिवाज एवं लोक कलाओं पर आश्रित है। यहां पर अनेक जाति व समुदाय के समूह है। जिनमें अनेक प्रकार की सांस्कृतिक हलचल व अनेक तीज त्यौहार होते है। जो यहां की अनुपम संस्कृति को दर्शाता है। आदिवासी सभ्यता में आज भी नाटक, नौटंकी, लोकगीत, लोकनृत्य, लोकसंगीत, लोकवाद्य गायन तथा सामूहिक उत्सव का प्रचलन है। इस संास्कृतिक पक्षों को समाचार पत्रों के माध्यम से बखूबी से उठाया जा सकता है। इसी प्रकार आज समाचार पत्रों ने ग्रामीणों में उपस्थित प्रतिभा को खोज कर उनको उजागर किया जा सकता है। समाचार पत्रों व मीडिया के माध्यम से ग्रामीण संस्कृति के विकसित करने की पुरजोर कोशिश हो सकती है। 

परंतु आज अधिकांश समाचार पत्रों पर ऐसे ही लोगो का कब्जा है, जिनके लिए विकास का अर्थ अधिक से अधिक विज्ञापन और सनसनी खेज समाचार प्रकाशित करके पत्र की बिक्री को बढ़ाना है तब ऐसी स्थिति में विकास पत्रकारिता की ओर ध्यान कौन दे पायेंगा। अब तो चौकाने वाली एक नई स्थिति पत्रकार जगत में यह बनती जा रही हैं, कि संपादक के पद और उसकी गरिमा को कुचल कर रख दिया जाए जो कि किसी भी स्थिति में ठीक नहीं है। 
यह कार्य देश के सबसे बड़े समाचार समूहों में शुरू हो चुका हैं। जहां संपादक को विज्ञापनों की भी व्यवस्था करने के निर्देष दिये गये हैं। जब कल्पना करिए की एक संपादक यदि विज्ञापनों की ओर ध्यान देगा , तब क्या वह निर्भीकता और तटस्थ भावना के साथ, समाचारों के साथ न्याय कर सकेगा? उसकी कोशिश तो यही होगी कि जहां से उसे विज्ञापन बटोरने हैं पहले उन लोगों को खुश रखा जाएं। 
भारत में प्राकृृतिक, वन एवं खनिज संसाधनों के प्रचुर भंडार होने के बावजूद भी इसका समुचित विकास अब तक नही हो पाया है। भारत के कई क्षेत्र क्यो अभी भी विकास से कोसों दूर हैं। उद्योगों का विकास, कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी, सड़क एवं बिजलीे, शिक्षा के क्षेत्र में कई संस्थानों का विकास भारत में हुआ जिसने वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान भी बनाई है परंतु इसका फायदा आम आदमी को अब तक क्यों नहीं मिल पाया है। स्वतंत्रता के बाद से ही हमारे देश में तेजी से विकास की प्रक्रिया शुरू तो हुई है कई लोगों के जीवन में बदलाव तो आया है। समाज में नित नई विकास की झलक भी हमें देखने को मिला है। परंतु इसे संपूर्ण एवं टिकाऊ विकास तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक कि इसका फायदा आम नागरिक को न हो। जैसे-जैसे हमारा गणतंत्र परिपक्व होता चला जा रहा है उसी गति से लोगों की आकंाक्षाएं भी बढ़ने लगी है, जो विकास की गति को और आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकती है। जाहिर है कि किसी भी गुलाम देश का नागरिक अपनी रूचि और इच्छाओं के अनुरूप वातावरण में सफल नहीं हो सकता है परंतु हमारे देश में वर्ष 1947 में स्वतंत्र होने के बाद से ही विकास का चक्का तेजी से घुमने लगा है। और इसी के साथ ही हमारे देश में मीडिया के क्षेत्र में विकास के महत्व को  स्वीकारने का सिलसिला आरंभ हुआ है। आज मीडिया देश के चौथे स्तंभ के रूप में जाना जाने लगा है। एैसे में निश्चित ही भारत जैसे विकासशील देश के टिकाऊ विकास  की दिशा में मीडिया अपनी महती भूमिका सिद्व कर सकती है।

Advertising Plays a Vital Roal in the Development of Enterpreneurship

Advertising Plays a Vital Roal in the Development of  Enterpreneurship”

            Success is one of the most important objectives of an entrepreneurship.  To attain success it is important that the business gives due consideration to the advertising and marketing of the products. The overall success depends how well the communication message is passed on to the target audience. The objective of marketing is to understand the target customers requirement and to develop a plan accordingly. By impressing the audience with the message the advertiser increases his customer base. Advertising thus helps in increasing brand awareness converting it to sales.
            Advertising is a form of commercial mass communication designed to promote the sale of a product or service or message on behalf of an institution, organisation. Evidence of advertising can be found in cultures that existed thousands of years ago but advertising only become a major industry in the 20th century. The word “advertising” has been derived from the Latin word “Advertere” which means to turn people’s attentions to a specific things.
           
            The objective of any advertisement is to reach the people with the right sense at the right time. Hence, the advertisers take much effort in creating and presenting advertisement to the public. The Impact of the advertisement on the viewers, leades to cultural and social revolution. Continuous advertisements for the same product influences change in the consumption pattern of the individuals and thus affects a change in the life style of the society.

            The aim of every business is to make profit merchandising concern can do that by increasing its sales at remunerative prices. Advertising is one of the techniques, which oscillates the sales, denotes a specific attempt to popularize specific products or a service at certain cost to increase the sales promotion, in turn, to increase the profit. Though advertising is a business, it is basically a communication activity. Our world is full of  myriad of products and services. We must be informed about the availability of these. We must also know what benefits these products and services offer to us. We should know what needs these products and services satisfy. They may make us feel important. They may upgrade our social status. They may declare that we belong to contemporary world. We are, thus, not only imformed but are also persuaded by these communications. Advertising is thus, informative and persuasive communication, though at times it dissuades us from making use of certain harmful products or cautions us against certain harmful practices. As business has attained global proportions, it is necessary to communicate to a  large audience at the same time by making use of the mass media.

            With the liberalization policy followed by government and subsequent entry of multinationals in India, the true marketing came to India. Advertising changed a lot at the same time. Because of intense competition, the advertising budget increased multifold. Advertising has come out as a very powerful medium to inform, persuade or to remind the consumers. Advertising today is used by every one whether he is individual, group, a company, a service organisation. Advertising spurs economic development. It engineers sales. It helps people and organisation to find each other. It creates or sustains thousands of job in advertising agencies, in various promotion and exhibition industries.

            Today the industry employs hundreds of thousands of people and influences the behaviour and buying habits of billions of people. Advertising spending wordwide now exceeds 350 billion per year. In the United States alone about 6,000 advertising agencies help create and place  advertisements in a variety of media including newspapers, television, direct mail, radio, magazines and internet. Advertising is so commonplace in the United States that an average person may encounter from 500 to 1,000 advertisements in a single day according to some estimates. Most advertising is designed to promote the sale of a particular product or service.
           
            Some advertisements however are intended to promote an idea or influence behaviour such as encouraging people not to use illegal drugs or smoke cigarettes. These ads are often called public service ads (PSAs). Some ads promote an institution such as the Red Cross or the United States Army and are known as institutional advertising. Their purpose is to encourage people to volunteer or donate money or services or simply to improve the image of the institution doing the advertising.
           
            Many experts believe that advertising has important economic and social benefits. However advertising also has its critics who say that some advertising is deceptive or encourages an excessively materialistic culture or reinforces harmful serotypes. The United States and many other countries regulate advertising to prevent deceptive ads or to limit the visibility of certain kinds of ads.
           
            Advertising has become increasingly international more than than ever before. Corporations are looking beyond their own country’s borders for new customers. Faster modes of shipping, the growth of multinational corporations, rising personal income levels worldwide and falling trade barriers have all  encouraged commerce between countries. Because corporations are opening new markets and selling their products in many regions of globe they are also advertising their products in those regions.

-          Dr. Ashutosh Mandavi
HEAD
Dept. Of Advertising & Public relations
Kushabhau Thakre University of Journalism, Raipur (Chhattishgarh)
Mob. -   9893249463
Watsapp - 9407990437


Advertising is the Effective Means of Communication.

“Advertising is the Effective Means of Communication.”
Mandavi, Dr. Ashutosh
HEAD, Dept. of Advertising & Public Relations, Kushabhau Thakre University of Journalism & Mass Communication
Raipur, Chhattishgarh 492013, India


            Communications comes from the Latin word ‘communis’, means ‘common’. We deliberately communicate ideas, information etc. to establish a ‘commonness’ with others. The essence of communications is to bring about understanding between the receiver and the sender. The messsage bring about intended behaviours as well. Newspapers, films, radio, television etc. are used to convey messages to the general public. Communication makes the people understand each other and share joys and sorrows, problems and responsibilities. Communication is a planned and organized activity.
            Wilber Schramm in his article “ How communication works”  identified three elements of communication, namely, the source, the message and the destination. Today we are living in the world of communication. Nothing moves without communication. It makes human life very convenient. Communication is power. An eminent communication scientist Everett. M. Rogers observes: “Wherever change occurs, there flows communication.” We cannot imagine our lives and society without communication. It helps people and society grow together and further. In reality communication should be perceived as “human communication”. Therefore the phrase “mass communication” has been used by the communication scientists. Mass communication deals with the communication which is of the people, by the people and for the people in the democratic sense.
            Advertising is a “ Means of communicating information pertaining to product, services or ideas by other than direct personal contact and on an openly paid basis with an intent to sell or otherwise obtain favourable consideration.” Informative advertising enables consumers to secure relevant and adequate information about all rival products and their relative merits. Thus, advertising helps consumers to exercise their right to choose and buy a product of service intelligently. Advertising enhances the decision making by providing  information and by supporting brand names. It provides an efficient means to communicate. By generating various product association, advertising can add to the utility a buyer receives from product. Advertisement increases sales and consumption of product by either introducing new articles in the market or by familiarizing people with the new uses of the old articles. It attracts attention, creates interest and awareness and arises and maintains consumers demand. It influences the buying behavior of the prospective customers. It widens the market for a product. It encourages mass production and enables a businessman to enjoy the large scale economics. It reduces per unit production and distribution costs. Optimum utilization of resources reduces costs and increases profits.
            Advertising is a form of commercial mass communication designed to promote the sale of a product or services. Advertising in the sense of communication link between a buyer and a seller or a producer and a consumer is really as old as civilization itself. As we know from the beginning in India . It was also known that the Bengal gazette or hickey’s gazette was the first newspaper in India published on 29  january 1780 after its founder editor, james Augustus Hickey and it carried advertisements. As an organized Profession in India, advertising is relatively young. The first advertising agency was set up in 1907. Within the brief span of years advertising in India has made rapid progress. During the last two decades, and particularly since the beginning of the nineties, it has reached a fairly high level of maturity in the advanced industrialized countries. Not only has its progress been very fast in few years but its character has also undergone a radical change.
            In recent years various big and notable changes have been witnessed in the field of communication and media. Many new concepts popped up and new media advertising is one of them. India is new to new media advertising but this concept has been around for quite a long time now. By the latest trend we come to know that new media advertising is the emerging and hottest medium of advertisement. New media advertising is synonym of online advertising and has taken web media with a stride. Now people instead of going for traditional advertising trend to give more weightage to online advertising. This is mainly due to fact that it is more targeted maximum exposure. New media advertising has got a bright future. The advantage of new media advertising is that it is relatively cheaper in comparison to other media and can also be done in an attractive manner. Moreover, various small and upcoming businesses can easily go for new media advertising because it has emerged as one of the most convenient way to promote any product and services..      
            In this communication age, advertisement bloomed to its full form with the liberalization policy, technological advancements and introduction of various modern electronic media, made advertising not only more fascinating and income generating but also socio-cultural influencing. Thus we can say that advertisements have become the part of life for every one through various mass media. In the present era of information explosion and media influence,  advertising play a major role in changing the society. Thus, the impact leads to cultural and social changes to a great extent through mass media.

Author Introduction -      My Self is Dr.Ashutosh Mandavi. I have completed my Graduation(B.A.) from Barkatullah University, Bhopal in  year 2001 and Post Graduation (M. A. Advertising & Public Relations) from Makhanlal Chaturvedi National University of Journalism and Communication year 2003. I have done My Ph.D from Guru Ghasidas Central University, Bilaspur, Chhattishgarh. At present I am teaching at  the Department of Advertising & Public Relations Studies  in Kushabhau Thakre University of Journalism and Mass Comunications, Raipur, Chhattishgarh. I have a interest in Reading & Writing.