Saturday, February 17, 2018

विकास पत्रकारिता

विकास का शाब्दिक अर्थ प्रसार या फैलाव होता है । जब हम जनसंचार के संदर्भ में विकास शब्द का प्रयोग करते हैं तो इसका अर्थ बहुत अधिक व्यापक हो जाता है। जीवन की प्रत्येक क्षेत्र में होने वाली गतिविधियों को विकास से जोडा जा सकता है। व्यक्ति के बौद्विक विकास की बात चलती है, तो देश में शिक्षा, संचार-माध्यम तथा साहित्य के क्षेत्र में हो रही गतिविधियॉं हमारे सामने होती है। उसके सांस्कृतिक विकास, ललित कलाओं -कला, संगीत, नृत्य,रंगमंच आदि के विकास के लिए हो रहे कार्यो का हवाला दिया जाता है। सामाजिक विकास के संदर्भ में बदलाव, बदलते सामाजिक संबंधों और मूल्यों का उल्लेख किया जाता हैं। भौतिक विकास को उद्योग, कृषि, औद्योगिकी, तकनीक, व्यापार आदि के विकास से जोड़ा जाता हैं। संक्षेप में, व्यक्ति की खुशहाली के समाचार या विकास की मुख्यधारा से कटे हुए लोगों की खबरे विकासात्मक जनसंचार का विषय बनती है। 

 विकास पत्रकारिता का ऐसा क्षेत्र है, जिसे आजादी मिलने के बाद समाचार पत्रों को सबसे अधिक महत्व देना चाहिए था जो कि नहीं हो पाया। राष्ट्र को जिस ढ़ंग से सुनियोजित रुप में लूटा और अनेक दृष्टियों से बर्वाद किया गया था जिसे फिर से सजानंे संवारने के उद्देश्य से राजनीतिज्ञों के साथ मीडिया जगत की काफी महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए थी। शुरु के कुछ वर्षों में ऐसी स्थिति रही भी लेकिन उसके बाद राजनीतिज्ञों का जो महत्व मीडिया जगत ने स्वीकार किया उसके बाद तो आज हालत ऐसी बन गयी कि चाहें समाचारपत्र को किसी भी छोर से पढ़ना शुरु करें सिवाय राजनीति के और कुछ पढ़नें को नहीं मिलेगा। 
सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही समान रुप से समाचार पत्र के कालमों को घेरंे पड़े हैं। राजनीतियों के वक्तव्य, भाषण, आरोप प्रत्यारोप आन्दोलन आदि सभी को समाचार जगत प्रमुखता से प्रकाशित करता रहा है। दूसरे नम्बर पर हिंसा तथा अन्य जघन्य अपराधिक घटनाएं तीसरे या कभी-कभी चौथे स्थान पर विकास संबंधी कार्यक्रमों तथा उपलब्धियों को भी समाचार पत्रों के कालम में स्थान मिल जाता है। विकास संबंधी समाचारों से कहीं अधिक प्रमुखता सिनेमा जगत के पुरुष और महिलाओं को मिल रहा हैं। शर्म की बात तो यह है कि बहुत सी पत्र पत्रिकाओं ने तो गपशप शीर्षक से नियमित कालम शुरु किये हुए हैं लेकिन विकास संबंधी रचनात्मक गतिविधियों के लिए स्थान नहीं हैं।
     विकासात्मक पत्रकारिता या विकासात्मक समाचारों की उपादेयता व्यापकता और भूमिका को रेखांकित करते हुए द्वितीय प्रेस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया है कि-  विकास संबंधी रपट में सही और गलत काम की पूरी तस्वीर प्रस्तुत करनी चाहिए। उसमें आम आदमी के जीवन को प्रभावित करने वाले विभिन्न कार्यक्रमोें की विभिन्न परिस्थियों मेें विभिन्न स्थानों पर सफलता और विफलता के कारणों की छानबीन होनी चाहिए। हर व्यक्ति यह जानना चाहता कि चारों ओर ऐसा क्या घटित हो रहा है जिसका प्रभाव उस पर पड़ता है या पड़ सकता है। उसके जीवन में सुधार या परिवर्तन के लिए भी कोई संभावना बन रही है या बनने की प्रकिया में है। ऐसी बातों को जानने की भी उसमें जिज्ञासा होती है जो भले ही सनसनीखेज और रोमांचक न हो परंतु उसके जीवन में बदलाव का संकेत देती हो। ऐसे समाचार जो स्थितियों में बदलाव के प्रयत्नों एवं उनकी सफलता विफलता पर प्रकाश डाले किसी भी समाचार पत्र या माध्यम के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। आमतौर से विकासात्मक समाचारों का अर्थ उन समाचारों से लिया जाता है जो खेती उद्योग आदि के क्षेत्र में विकास के आकड़े प्रस्तुत करते हैं। परंतु वस्तुतः यह विकास का मात्र एक पक्ष है। दूसरा और अधिक वास्तविक पक्ष यह जानना है कि विभिन्न विकास योजनाओं के द्वारा समाज के विभिन्न वर्गो के आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव तथा विकास के क्रम में कौन आगे बढ़ा और कौन पीछे छुट गया है। 
           वर्तमान समय में मीडिया का क्षेत्र एवं परिधि बहुत व्यापक हो गया है। उसे किसी सीमा में बांधा नहीं जा सकता। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हो रही हलचलों, संभावनाओं पर विचार कर एक नई दिशा देनें का काम मीडिया के क्षेत्र में आ जाता है। मीडिया जीवन के प्रत्येक पहलू पर नजर रखे हुए है। इन अर्थों में उसका क्षेत्र बहुत ही व्यापक एवं विस्तृत है। मीडिया तमाम जनसमस्याओं एवं सवालों से जुड़ी होती हैं, समस्याओं को प्रशासन के सामने प्रस्तुत कर उस पर बहस के लिए प्रेरित करती हैं। समाज जीवन के हर क्षेत्र में आज मीडिया की महत्ता स्वीकारी जा रही हैं। आर्थिक, समाजिक,राजनीतिक, विज्ञान, कला सभी क्षेत्र मीडिया के दायरे में हैं। इन संदर्भो में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया का महत्व खासा बढ़ गया है। नई आर्थिक नीतियों के प्रभावों तथा जीवन में कारोबारी दुनिया एवं शेयर मार्केट के बढ़ते हस्तक्षेप ने इसका महत्व बढ़ा दिया है।
      अर्थव्यवस्था प्रधान युग होनें के कारण प्रत्येक प्रमुख समाचार-पत्र दो चार पृष्ठ आर्थिक गतिविधियों के लिए आरक्षित कर रहा है। इसमें आर्थिक जगत से जुड़ी घटनाओं, कम्पनी समाचारों, शेयर मार्केट की सूचनाओं, सरकारी नीति में बदलावों, मुद्रा बाजार, सराफा बाजार एवं विविध मण्डियों से जुडं़े समाचार छपतें हैं।     
       जैसा कि हमे विदित है भारत एक ग्रामीण एवं संस्कृति प्रधान देश है। हमारी कुल जनसंख्या का बीस प्रतिशत भाग ही शहरों में है जबकि शेष अस्सी प्रतिशत जनता गांवों में निवास करती है। आजादी से लेकर अब तक सरकार ने गांवों के विकास के लिए बहुत कुछ किया हैं। जिसे क्षेत्रीय समाचार पत्रों ने विस्तार से छापा है, और ऐसे समाचारपत्रों के माध्यम से आज जिन लोगों को इस बात की जानकारी भी मिली है, जो सरकार के विकास कार्यक्रमों से किसी कारणवश अछूते रह गये और भूमिहीन लोगों के लिए जमीन देने का कार्यक्रम, नलकूप, खाद, अच्छी किस्म के बीज कर्ज की सुविधाएं नहीं ले सके। किसान की नजर में जमीन का माता जैसा सम्मान होता हैं। जमीन के संबंध में जों कल्याणकारी कुछ निर्णय सरकार ने किये यदि उनकी सचमुच जानकारी समाचारपत्रों के माध्यम से उन तक पहुंच जाये तब इससे समाज कल्याण तथा राष्ट्रीय विकास में और गति आ पायेगी। कुछ ऐसे बडे़ं समाचारपत्र भी है, जिन्होंने ’कृषि संवाददाता’ नियुक्त कर रखे हैं। लेकिन ये संवाददाता अपना कार्यक्षेत्र शहरों तक ही सीमित रखतें हैं। मुख्य रुप से सरकार के कृषि विकास द्वारा जारी होने वाली विज्ञप्तियों की भाषा बिगाड़ या संवार कर समाचार के रुप में छापते हैं, या फिर कभी राष्ट्रीय और अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर कीटनाशक या उर्वरक का उत्पादन करने वाली बड़ी कम्पनियों के निमंत्रण पर विदशों में होने वाली संगोष्ठियों में भाग लेनें जाते हैं। 
ग्रामीण अंचलों में जो तेजी से विकास नहीं हो सका, उसका एक मात्र कारण गरीबी नहीं है, बल्कि अज्ञानता की वे जंजीरें भी हैं जिन्हांेने वहां के लोगों को विकास ओर बढ़ने से रोकने में सबसे बड़ी बाधा पेश कर रखीं हैं और लकीर के फकीर बने हुये हैं। गरीबी और अज्ञानता की दुधारी तलवारों के बीच फसे ग्रामीण अंचल आज वह सब कुछ प्राप्त नहीं कर सके जिसके वे सही अर्थों में हकदार हैं। ऐसे लोगों की आवश्यकता सबसे बड़ी यह होती हैं कि पत्रकार और साहित्यकार उनके बीच जाकर उनके कष्ट और अनुभवों को प्रकाश में लाए, जिससे विकास से संबंद्ध लोगों का ध्यान उनकी ओर जाए विकास पत्रकारिता के लिए क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। 
      ग्रामीण अंचलों में अज्ञानता के कारण विकास होना तो बहुत दूर की बात हैं वहां तो आम जीवन में इतने कष्ट आते हैं, कि लोग उसी कुचक्र से अपने आपको नहीं बचा पाते हैं। जिस समाज में किसी महामारी का कारण भूत-प्रेत मानें जायें अथवा किसी एक की बीमारी को दूर करने के लक्ष्य से किसी एक मासूम की हत्या तक कर डाली जाये तब ऐसे समाज में विकास की दिशा कहां से और कैसे पहुंचेगी ? यह एक अपने आप में बहुत बड़ी चुनौती हैं। ऐसे कुचक्रो को ध्वस्त करने के लिए टिकाऊ विकास की जरूरत है। जो कि विकास पत्रकारिता के माध्यम से ही दूर हो सकता है। दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे देश में ऐसा नहीं हो पा रहा हैं। जो कुछ होना शुरू हुआ भी है उसकी गति बहुत धीमी हैं।
प्रश्न यह है कि जब तक व्यक्ति लगातार गांव में किसानों के साथ रहकर आवश्यकताओं और परेशानियों को नहीं समझता हैं। तब उन्हें दूर करने के लिए वह ठोस कदम उठाने की स्थिति में नहीं आ सकता। विकास की खुशबू को गांव गांव पहुचाने के लक्ष्य से बहुत पहलें भारत सरकार नें सबसे बडें-बडें मंत्रालयों जैसे कृषि, रेल, समाज कल्याण, योजना आदि के मुखपत्रों का प्रकाशन शुरु कर दिया था। उदाहरण के लिए योजना मंत्रालय के अधीन ‘‘योजना‘‘ नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया जो आधा दर्जन भाषाओं में छपनी शुरु हुई। कृषि मंत्रालय की पत्रिका ‘‘खेती‘‘ हिन्दी में तथा अंग्रेजी में ‘‘इण्डिन फार्म जनरल‘‘ तथा ग्रामीण विकास के क्षेत्र में ‘‘कुरुक्षेत्र‘‘ इसी प्रकार समाज कल्याण विभाग की एक पत्रिका का अलग से प्रकाशन आरम्भ हुआ। ऐसी पत्रिकाओं में जानकरी तो काफी रही लेकिन उसे प्रस्तुत करने का तरीका अधिक आकर्षक नहीं रहा। भारत सरकार ने सभी महत्वपूर्ण विभागों की गतिविधियों की आवश्यक जानकारी जनसाधारण तक पहुंचानें के लक्ष्य से जो बहुत ही साप्ताहिक पाक्षिक और मासिक पत्रिकाएं आरंभ की वे सभी हर दृष्टि से सफल सिद्ध हुई हैं। साधारण सी भाषा, जो कम पढ़े लिखे व्यक्ति की भी समझ में आ सके। अधिक से अधिक विकास संबंधी जानकारी और वह भी बहुत कम मूल्य पर उपलब्ध कराकर प्रकाशन विभाग ने सरकार की नीतियों का पालन किया हैं।
      एक बात और देखनें में आयी है, कि कुछ राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्रों की विशेष रुचि अभी तक विकास की ओर नहीं हो सकी हैं। कुछ समाचार पत्र एैसे हैं जिनके कालम ही क्या उनके पन्ने उन सामाचारों से भरें हुए होते हैं जो महानगरों के भव्य समारोंह पर आधारित होती हैं अथवा वातानुकूलित होटलों में छलकतंे जामों के बीच संवाददाताओं को जो कुछ पढ़ाया और सुनाया जाता हैं। एक बार नई दिल्ली से प्रकाषित एक अखबार में कही दूर दराज जाकर नहीं बल्कि दिल्ली से चंद किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव छतेरा को गोद ले लिया। कुछ समय बाद एक रिपोर्ट उस गांव के विकास पर नियमित रुप से खबर छापनें लगे। इस मामूली सी घटना को भी उस समाचार पत्र के संपादक ने इस तरह जताने की कोशिश की जैसे इस समाचार पत्र में कोई बहुत बड़ी चुनौती को स्वीकार कर लिया था। यह एक आम मान्यता है, कि अंग्रेजी दैनिक समाचारपत्रों की तुलना में हिन्दी तथा अनेक क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार पत्रों में विकास पत्रकारिता को कहीं अधिक स्थान प्रदान किया है। ’राजस्थान पत्रिका’ का अध्ययन करनें से तो यह संकेत भी मिलता हैं कि समाचार पत्र के संपादक ने एक संवाददाता की जिम्मेदारी ही यह लगा दी है, कि वह हर सप्ताह ग्रामीण अंचलों की दौरे से लौटकर एक रपट देगें। काश कि ऐसा प्रयास देश के अन्य समाचार पत्र भी कर पातें। 
विकास पत्रकारिता के क्षेत्र में वहीं लोग अधिक सफल सिद्ध होगें जिनके सीनें में उपेक्षित तथा अविकसित क्षेत्रों के प्रति विेशेष हमदर्दी हैं। जिला मुख्यालयों से लेकर प्रदेश अथवा राष्ट्रीय मुख्यालयों में बैठे लोग विकास पत्रकारिता को आगे नहीं बढ़ा पायेगें चूकि ग्रामीण अंचल जहां विकास की बहुत संभावनायें हैं। वहां जाकर जो भी पत्रकार थोड़ा बहुत कार्य करके वहां की समस्याओं के प्रति समाज और सरकारी तंत्र को जानकारी उपलब्ध कराता है। जो प्रशंसनीय कहा जाता हैं, और बहुत सी संस्थाएं उन्हें सार्वजनिक रुप से सम्मानित भी करती हैं। इस क्षेत्र में आवश्यकता इस बात की है, कि अधिक से अधिक संस्थानों को आगे आना चाहिए इस क्षेत्र में समाचार जगत की ही एक संस्था में कुछ कदम बढ़ायें हैं। कलकत्ता और दिल्ली से एक साथ प्रकाशित ’स्टैटमैन’ समाचार पत्र में एक प्रशंसनीय कार्य यह किया हैं, कि जो पत्रकार ग्रामीण अंचलों की समस्या को लेकर अच्छा लेख लिखंेगें उन्हें सम्मानित किया जाए इस संस्था ने यह कार्य शुरु करके निश्चय ही विकास पत्रकारिता को प्रोत्साहित किया हैं।
ग्रामीण भारत की समस्याओं को प्रखर ढंग से उठाने वाले व मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध अंग्रेजी पत्रकार पी. साईंनाथ ने मीडिया के कारपोरेटीकरण की प्रवृत्ति पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए पिछले दिनों कहा था कि पिछले कुछ वर्षो से यह देखा जा रहा है कि, मीडिया आम आदमी से दूर होते चले जा रहे हैं, और पत्रकारों की नौकरी भी इसमें काफी असुरक्षित हो गई है। पिछले दो वर्षों में देशभर में करीब 3 हजार से अधिक पत्रकारों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी है। इसका सबसे बड़ा कारण मीडिया का बाजारवाद के प्रति बढ़ती आस्था है। आज मीडिया विज्ञापन, बालीवुड और कारपोरेट घराने तक सीमित हो गया है। वह कुछ वर्षों से इतना व्यावसायिक होता जा रहा है कि खबरों की खरीद फरोख्त से नहीं बच सकता। आजादी के बाद इतना बड़ा कृषि संकट देश में पैदा नहीं हुआ था आर्थिक मंदी के दौर में 5 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरी गंवाई लेकिन मीडिया के लिए यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है । अधिकतर अखबारों में कृषि तथा आम जनता से जुड़े मुद्दों को कवर करने के लिए पूर्ण कालिक पत्रकार नहीं है। यहां तक कि अंग्रेजी के दो बड़े अखबारों में तो रिशेसन, आर्थिक मंदी के इस्तेमाल पर रोक लगी है। कारपोरेट जगत ने मीडिया का अपहरण कर लिया है। उन्होंने कहा कि आज मीडिया में आदिवासियों और दलितों का एक भी प्रतिनिधित्व नहीं है। आज भुखमरी, गरीबी, नक्सली हिंसा के सवाल गौंण होकर रह गये है। आज नक्सलवाद चरम पर है देष में इस पर बहस तो खूब हो रहे हैं राष्ट्रीय गोष्ठियां आयोजित की जा रहीं है कि आखिर इन सबका निदान कब तक संभव है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के ताजे रिपोर्ट बतलाते हैं कि दुनिया एक बार फिर खाद्यान्न संकट के मुहाने पर खड़ी है। भारत जैसे विकासशील देशों में हर साल खाद्यान्न के दाम करीब 15 फीसदी तक बढ़ रहे हैं। ‘‘युनाइटेड नेशन वर्ल्ड फूड प्रोग्राम‘‘ का कहना है कि पूरे दुनिया में भूखे लोगों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है । इन दिनों मंहगाई लोगों का जीवन मुश्किल बना दिया है। मगर जब सट्टा बाजार में कमोडिटी (वस्तुओं) के दाम बढ़ते हैं तो बाजार से जुड़े लोग मुनाफा काटते हैं। मुनाफाखोरी का यह खेल खाद्यान्न संकट का अहम कारण है। संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेषज्ञों का मानना है कि कमोडिटी मार्केट का खेल ही दुनिया में भूख व खाद्यान्न संकट तेजी से बढ़ा रहा है। यूएन विशेषज्ञों के अनुसार दुनिया भर में पेंशन, बड़ी निधियां व बड़े बैंकों ने भारी मात्रा में जिस कमोडिटी बाजार में पैसा लगाया है इसके चलते खाद्यान्न के मामले में अस्थिरता बढ़ रही है। यूएनडीए के रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में 2 करोड़ 20 लाख मीटिक टन अनाज की कमी है। पूरी दुनिया में एक तरफ विकास का ढिंढोरा पीटा जा रहा है वहीं एक बड़ी आबादी को पेट भर खाना तक नसीब नहीं है। इन सभी मानव निर्मित समस्याओं के समाधान के उपाय हमे अब तलाशने ही होंगे।
आज अगर हम विकास की बात करते हैं तो उस विकास में सिर्फ सिमित लोगों का विकास ही शामिल हैं, संपन्नता की पहुंच सिर्फ कुछ ही लोगों तक सिमित है और देश की बाकी जनता उसी बदहाल जीवन जीने के लिए मजबूर है, देश की आजादी के 68 वर्ष पूर्ण करने के बाद भी साक्षरता का लक्षित दर अभी तक हासिल नही किया जा सका है, यूनेस्को के ताजे आंकड़े बताते हैं कि भारत अभी तक मात्र 65 फीसदी साक्षरता का दर हासिल कर सका है, जो कि लक्ष्य से कोसो दूर है। 
अनुसूचित क्षेत्रों में सरकार द्वारा जो उद्योग-धंधे स्थापित किये जा रहे हैं उनमें प्रभावित ग्रामीणों व विस्थापित परिवारों केा प्रदान की जाने वाली मुआवजा राशि की बात हो या विस्थापित परिवार के सदस्यों को नौकरी का मुद्दा हो या फिर विस्थापित परिवार के सदस्यों के शेयर होल्डिग तय करने की बात हो इस पर सरकार को वाकई गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है क्योकि किसी भी समुदाय के व्यक्ति के लिए आत्मसम्मानपूर्वक जीवन-यापन के लिए रोटी, कपड़ा और मकान के साथ-साथ आत्मसम्मान भी जरूरी है । हमारा देश सांस्कृतिक वैशिष्टयता वाला देश है जहां की संस्कृति अपने आप में विशिष्टता लिए हुए है यहां के लोकनृत्य ,लोकगीत, चित्रकला तथा लोककला ,शिल्पकला आदि को तथा उनसे जुड़ी तमाम विधाओं के साथ सहेजनेे की सबसे ज्यादा जरूरत है, क्योकि लोककलाओं को बचाना है और उन्हें जीवनोपयोगी रखना है तो उनके साथ जुड़े संस्कारों को भी बचाना होगा, तभी लोककलाओं को उसकी आत्मा के साथ बचाया जा सकता है। तभी सांस्कृतिक वैशिष्टयता को संरक्षित करने में हम सफल हो पायेंगे।
पारंपरिक लोककलाओं, लोकनृत्यो व लोकगीतों के विकास तथा संवर्धन हेतु हमारे विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा संचालित पाठ्यक्रमों में स्थान देने की जरूरत है, तथा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी गोंडी, हल्बी, भतरी जैसी बोलियों को संरक्षित करने भाषा व लोककला संस्थान स्थापित करने के प्रयास किये जाने की आवश्यकता है, क्योकि ये प्राचीन बोलियां, ये लोककलाएं, ये नृत्य, ये चित्रकला तथा मूर्तिकला हजारों वर्षों के अनुभवों को अपने में संचित तथा समाहित किये हुये हैं। सरकार द्वारा  लोककला संग्राहलयों, सांस्कृतिक केन्द्रों, लोकसंगीत नाटक अकादमी तथा लोककला वीथिका की स्थापना किये जाने की आवश्यकता है, जिससे लोगों में इन विलुप्त हो रही लोककलाओं के प्रति जागरूकता पैदा हो सके तथा साथ-साथ इसका भी ख्याल रखा जाना आवश्यक है कि बड़ी तेजी से उभरते महानगरीय संस्कृति की चकाचौंध का प्रभाव इन लोककलाओं पर न पडे । लोककलाओं तथा इन्हीं के जैसे ग्रामीण विधाओं को आज व्यवसाय का माध्यम बनाने हेतु भी आवश्यक कदम उठाने की जरूरत है जिससे इन विधाओं से जुड़े लोककलाकारों को आजीविका के साधन उपलब्ध हो सकेंगे तभी देश का सही मायने में विकास हो पायेगा। 
आज भारत जैसे विकासषील देश की अगर बात करें तो भारत में लगभग 80 प्रतिषत जनता अभी भी गांवों में निवास करती है और जहां साक्षरता का प्रतिशत भी  अमूमन यही दिखलाई पड़ता है। अन्य विकसित देश जैसे अमेरिका, रूस, जापान तथा चीन की अगर बात करें तो वहां भी आधारभूत विकास पर ज्यादा ध्यान दिया गया तथा सामुदायिक सहभागिता के आधार पर ही विकास के नये कीर्तिमान स्थापित किये गये, इसलिए आधारभूत विकास व सामुदायिक सहभागिता के सिद्धांत के बिना कोई भी देश विकास की ओर अग्रसर नहीं हो सकता है। नक्सलवाद आज छत्तीसगढ़ जैसे शांत राज्य के लिए ही नही बल्कि समूचे भारत देश के लिए नासूर बनता जा रहा है। सुंदर और शांत बस्तर आज नक्सली हिंसा के कारण युद्धभूमि में तब्दील हो गया है, आये दिन न जाने कितने आदिवासियों, ग्रामीणों व पुलिस कर्मचारियों की हत्यायें हो रही है या फिर कितने लोग अगवा कर लिये जा रहे है। इन सबका सकारात्मक हल हम सबको मिलकर ही ढूढना होगा। नही तो आने वाली पीढ़ीयां हमें कभी माफ नहीं कर पायंेगी। नक्सलवादियों और माओवादियों के द्वारा की जाने वाली हत्याओं का सिलसिला अभी भी जारी है। छत्तीसगढ में अभी गत वर्ष ही दरभा घाटी में एक बड़े राजनैतिक पार्टी के सभी बडे़ नेताओं का सामूहिक नरसंहार की घटना ने पूरे देश को चाैंका कर रख दिया तथा इसके साथ ही बस्तर से सुकमा के कलेक्टर रहे श्री एलेक्स पॉल मेनन को अगुआ किये जाने वाली घटना सेे नक्सलवादियों का घिनौना चेहरा देश के सामने उजागर हुआ है। इसी घटना से एक महीने पहले उड़ीसा से युवा विधायक को अगुआ किया गया था जिसे बड़ी मषक्कत के बाद छोड़ा गया था। माओवादियों के द्वारा 2005 से अब तक वे 2670 से भी ज्यादा लोगों की हत्या कर चुके हैं जिनमें 1680 से भी ज्यादा ग्रामीण व दूसरे लोग हैं और 1000 से अधिक सुरक्षा बलों के जवान शामिल हैं। 2010 में ही अगस्त तक माओवादी 460 से ज्यादा लोगों की हत्या कर चुके हैं जिनमें से सुरक्षा बलों के 167 जवान हैं और बाकी सामान्य नागरिक जिनमें वे ग्रामीण भी शामिल हैं जिनके बारे में उन्हें शक था  िक वे पुलिस के खबरी हैैं। लाल आतंक से ग्रस्त राज्यों में छत्तीसगढ में माओवादी सबसे ज्यादा सक्रिय हैं। वहां उन्होंने सुरक्षा बलों के सबसे ज्यादा जवानों को मारा है। उसके बाद पश्चिम बंगाल का नंबर आता है । इसके बाद ओड़ीसा है और फिर झारखण्ड और बिहार। 2009 में माओवादियों और नक्सलवादियों की हिंसा में करीब 1000 लोगों की मौत हुई है। इस आंकड़े में 392 नागरिक, 312 सुरक्षाकर्मी और 294 नक्सलवादी शामिल हैं। 2008 में उन्होंने 210 नागरिकों व 214 सुरक्षाकर्मियों को मारा जबकि 214 माओवादी भी मारे गये। 
इन सभी घटनाआंे को प्रमुखता से उठाने में समाचार पत्र पत्रिकाओं का बहुमूल्य योगदान रहा है और आने वाले समय में इस समस्या के निराकरण में महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। मीडिया ने समाज के प्रहरी के रूप में, कभी आईना, तो कभी जन जागरूकता के रूप में अपना स्थान बनाया हैं। हमारे भारत वर्ष में जनसंख्या अधिक होने के कारण इस क्षेत्र में कार्य का दायरा बढ़ा है, जिसके परिणामतः पत्र-पत्रिकाओं का मूल्य और भी महत्वपूर्ण स्थान निर्धारित करता है। चूकि ग्रामीण क्षेत्रों मंे अनेक प्रकार की विषमताएं ,अस्पृश्यता, सामाजिक, राजनीतिक व कुरीतियों का माया-जाल इतना फैल चूका है, जिसमें फंसकर ग्रामीण जन अपनी अधिकार या कर्म से विमुख हो जाते है और दोषपूर्ण रास्ते का चयन कर बैठतें है या उनको उनकी शिक्षा की अल्पज्ञता के कारण उनको संकटों का सामना करना पड़ता है। ग्रामीण जन भोले-भाले व निष्पक्ष विचारधारा वाले होते हैं। जिसके कारण उनको छले-जाने में थोडा सा भी समय नही लगता अर्थात ग्रामीण लोग किसी पर भी जल्दी विश्वास जता देते हैं। ऐसे समय में यदि समाचार-पत्र का साथ इन ग्रामीणें को मिल जाये तो इनको उचित राह मिल सकता है। और केवल उनकांे एक ही क्षेत्रों में नहीं,बल्कि सभी क्षेत्रों में जैसे - सामाजिक बुराइयॉं, धार्मिक प्रवचन, राजनीति के छल-कपट, राजकीय चक्रव्यूह, आर्थिक दुरावस्था तथा समाजद्रोही तत्वों के दुश्कृत्यों की पोल खोलनें, उनसे बचने, सचेत रहने तथा विपत्ति पड़नंे पर किसी ढंग से निकलने की शिक्षा देने का दायित्व भी आज का मीडिया महत्वपूर्ण तरीके से निभा सकता हैं।
    मीडिया देश के टिकाउ विकास के लिए निम्नांकित क्षेत्रों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका सिद्व कर सकती है-
1. कृषि विकास में सहायक-
 भारत एक कृषि प्रधान देष है जिसकी एक तिहाई आबादी कृषि कार्य में लगे है। ऐसे में इन किसानों के मध्य अनंेक प्रकार कृषि समास्याएं व अज्ञानता होती है, व कब किस मौसम में कौन सी फसल लें मृदा कैसी है कौन सी मृदा में क्या फसल लगया जाए उस फसल में कौन सी वैज्ञानिक उपकरण का सहारा ले फसल की बीमारी, कौन सी सावधानी रखें बीज की प्रमाणिकता बीज मिलने का केन्द्र और मृदा परीक्षण फसल चक्रण आदि से जुडी ऐसी हजारों सैकडों समस्याएं किसानों को होती है। जिनका उचित निराकरण होना जरूरी है अन्यथा किसानों की अव्यवस्था से भी परिचित है जिसका सीधा असर हमारे अर्थव्यवस्था पर पड़ता हैं ।
   यह तो एक यथा सत्य है कि ऐसे समाचारों का प्रसारण अधिकतर दृष्य और माध्यमों में ज्यादा आती है। जिसका लाभ केवल विद्युतीकरण तक ही सीमित है तथा जहां इनकी पहुॅंच नहीं है वहां उचित लाभ नहीं मिल पाता ।
अब बात आती है किसानों की जिनके पास सुविधा उपलब्ध नहीं है, उनके लिए समाचार पत्र-पत्रिका महत्वपूर्ण होतें हैं यह बात अलग है कि आज कल सारे अखबार कंपनी के विज्ञापन, रंगीन मसाला चित्र व अनैतिक समाचारों ने ले लिया है। कई अखबारों में तो ग्रामीणों के लिए उपयोगी समाचार नहीं मिलेगा, लेकिन कुछ अखबारों द्वारा इस वर्ग के लिए अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है । अतः ग्रामीण कृषक के लिए समाचार-पत्र मित्र जैसंे कार्य और समय-समय पर उचित जानकारी प्रकाषित कर रहें हैं।  


2. युवाओं के विकास में सहायक-

        समाचार पत्र-पत्रिकाओं में विकासात्मक खबर हर साल सैकड़ों ग्रामीण युवक-युवतियों को रोजगार उपलब्ध कराता है लेकिन ग्रामीण अंचलों में संचार व्यवस्था का पूर्णतः अभाव होने के कारण  उनसे दूर हो जाते है। भारत में ऐसे कई गांव मिल जायेंगें जहां अखबारें अब तक नही पहुॅंच पा रहा है। अतः रोजगार के अवसर से दूर हो जाते है। पर भी कुछ हद तक रोजगार उपलब्ध कराने में सहायक सिद्ध हो सकता है।

3. सूचना और जानकारी प्रदान करने में सहायक-

      वर्तमान समय पूर्ण रूप से सूचना संचार प्रौद्योगिकी का युग है। सारा विश्व एक गांव के रूप में बट गया है, जिसे ग्लोबलाइजेषन कहते है। आज गांव हो या शहर या फिर विदेश सभी को विश्व की हलचल जानने की उत्सुकता होती है। ऐसे में ग्रामीण क्षेत्र के लोगों में भी अपने आस-पास की घटनाओं को जानने की इच्छा होती है। जिसको समाचार-पत्र पत्रिका और मीडिया के अन्य माध्यमों से जाना जाता है। चूंकि हमारी सरकारें समय-समय पर विभिन्न प्रकार के कार्य योजनाओं का संचालन करते हैं। जिनका लक्ष्य समाज के अंतिम छोर के व्यक्तियों तक पहुंचाने की होती है। जिसका लाभ वे आसानी से ले सके। ग्रामीण क्षेत्रों में कई बार सूचना व जानकारी के अभाव में अजीबों गरीब घटनाएं घट जाती है तथा लोग विपत्ति में फस जाते है। इस प्रकार की परिस्थिति से निपटने में मीडिया सहायक सिद्व हो सकता है।

4. सामाजिक विकास में सहायक-

          ग्रामीण परिवेष में समाचार-पत्र का विषेश महत्व होता है। एक ओर जहां शहरी एवं महानगरी जीवन में बहुत तेजी से बदलाव आया है। शहरी जीवन बिना सभ्यता के पल बढ़ रहा है, वही दूसरी तरफ ग्रामीण जीवन में अभी भी अपनी परंपरा व सामाजिक भाव विद्धमान है। गांव में सहजता व स्वाभिमान कायम है गांव में कृषक वर्ग ज्यादा होते है।  तथा गांव में जमीदार व उच्च धन संपत्ति वाले लोग प्रायः कम होते है। गांव में भी राजनीति व गुट बाजी छा रही है । ऐसे में महत्वपूर्ण उस गांव में सामाजिक व्यवस्था होती है वहां की पंचायतंे। ऐसे में गांव में अनेक प्रकार के हलचल स्वाभाविक रूप से होनी है। जिसको समाचार पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से घटनाओं या समस्याओं का निराकरण कर वहां की सामाजिकता को कायम रखने में सहायक हो सकता है। 

5. सांस्कृतिक विकास में सहायक-
          हमारे ग्रामीण भारत पूर्णतः प्राचीन परंपरा, रीति रिवाज एवं लोक कलाओं पर आश्रित है। यहां पर अनेक जाति व समुदाय के समूह है। जिनमें अनेक प्रकार की सांस्कृतिक हलचल व अनेक तीज त्यौहार होते है। जो यहां की अनुपम संस्कृति को दर्शाता है। आदिवासी सभ्यता में आज भी नाटक, नौटंकी, लोकगीत, लोकनृत्य, लोकसंगीत, लोकवाद्य गायन तथा सामूहिक उत्सव का प्रचलन है। इस संास्कृतिक पक्षों को समाचार पत्रों के माध्यम से बखूबी से उठाया जा सकता है। इसी प्रकार आज समाचार पत्रों ने ग्रामीणों में उपस्थित प्रतिभा को खोज कर उनको उजागर किया जा सकता है। समाचार पत्रों व मीडिया के माध्यम से ग्रामीण संस्कृति के विकसित करने की पुरजोर कोशिश हो सकती है। 

परंतु आज अधिकांश समाचार पत्रों पर ऐसे ही लोगो का कब्जा है, जिनके लिए विकास का अर्थ अधिक से अधिक विज्ञापन और सनसनी खेज समाचार प्रकाशित करके पत्र की बिक्री को बढ़ाना है तब ऐसी स्थिति में विकास पत्रकारिता की ओर ध्यान कौन दे पायेंगा। अब तो चौकाने वाली एक नई स्थिति पत्रकार जगत में यह बनती जा रही हैं, कि संपादक के पद और उसकी गरिमा को कुचल कर रख दिया जाए जो कि किसी भी स्थिति में ठीक नहीं है। 
यह कार्य देश के सबसे बड़े समाचार समूहों में शुरू हो चुका हैं। जहां संपादक को विज्ञापनों की भी व्यवस्था करने के निर्देष दिये गये हैं। जब कल्पना करिए की एक संपादक यदि विज्ञापनों की ओर ध्यान देगा , तब क्या वह निर्भीकता और तटस्थ भावना के साथ, समाचारों के साथ न्याय कर सकेगा? उसकी कोशिश तो यही होगी कि जहां से उसे विज्ञापन बटोरने हैं पहले उन लोगों को खुश रखा जाएं। 
भारत में प्राकृृतिक, वन एवं खनिज संसाधनों के प्रचुर भंडार होने के बावजूद भी इसका समुचित विकास अब तक नही हो पाया है। भारत के कई क्षेत्र क्यो अभी भी विकास से कोसों दूर हैं। उद्योगों का विकास, कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी, सड़क एवं बिजलीे, शिक्षा के क्षेत्र में कई संस्थानों का विकास भारत में हुआ जिसने वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान भी बनाई है परंतु इसका फायदा आम आदमी को अब तक क्यों नहीं मिल पाया है। स्वतंत्रता के बाद से ही हमारे देश में तेजी से विकास की प्रक्रिया शुरू तो हुई है कई लोगों के जीवन में बदलाव तो आया है। समाज में नित नई विकास की झलक भी हमें देखने को मिला है। परंतु इसे संपूर्ण एवं टिकाऊ विकास तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक कि इसका फायदा आम नागरिक को न हो। जैसे-जैसे हमारा गणतंत्र परिपक्व होता चला जा रहा है उसी गति से लोगों की आकंाक्षाएं भी बढ़ने लगी है, जो विकास की गति को और आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकती है। जाहिर है कि किसी भी गुलाम देश का नागरिक अपनी रूचि और इच्छाओं के अनुरूप वातावरण में सफल नहीं हो सकता है परंतु हमारे देश में वर्ष 1947 में स्वतंत्र होने के बाद से ही विकास का चक्का तेजी से घुमने लगा है। और इसी के साथ ही हमारे देश में मीडिया के क्षेत्र में विकास के महत्व को  स्वीकारने का सिलसिला आरंभ हुआ है। आज मीडिया देश के चौथे स्तंभ के रूप में जाना जाने लगा है। एैसे में निश्चित ही भारत जैसे विकासशील देश के टिकाऊ विकास  की दिशा में मीडिया अपनी महती भूमिका सिद्व कर सकती है।

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