Thursday, January 19, 2017

नगरीय पत्रकारिता की चुनौतियां



               नगरीय पत्रकारिता की चुनौतियां
स्वतंत्रता समर के दौरान न जाने कितनी कष्ट सहकर भी स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना से एकजुट होकर काम करते थे तब समाचार पत्रों का शीर्ष वाक्य होता था – उद्धेश्य नही श्रांतभवन में टिके रहना, किन्तु पहुँचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं है.” पत्रकारों के बारे में यह कहा जाता है की - पत्रकारों की सोच व् सूझबूझ उत्तम प्रकार की होनी चाहिए, पत्रकारों द्वारा झूठी व् बेबुनियाद ख़बरों को प्राथमिकता नहीं देना चाहिए. वर्तमान पत्रकारिता जहाँ तकनीकि रूप से संपन्न हैं वहीँ सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्धतता में कमी आई दिखाई पड़ती है . देश में जहाँ ग्रामीण पत्रकारिता चुनौतिया से भरी है है वहीँ नगरीय पत्रकारिता में भी चुनौती कोई कम नहीं है. नगरिया पत्रकारिता की अगर बात करें तो. नगरीय पत्रकारिता सातही तौर पर  ही समस्याओं को उठा पाती है एवं उनके निवारण के उपाय देने में असफल रहती है . हमारे नगरीय अंचल की समस्याओं के लिए पत्रकारों की रोजाना नगर पंचायत , पुलिस, जिला पंचायत , शिक्षा विभाग , विद्युत मंडल कार्यालय  के बारे में समस्याएँ बताना चाहिए और उसके निराकरण के उपाय खोजने चाहिए परन्तु ऐसा व्यवहार में कम ही होता है. अगर समाज के कीसी एक मुद्दे को लेकर अगर पत्रकार रिपोर्टिंग करे और उसे उसके अंजाम जक पहुंचाएं तो यही असली पत्रकारिता है. जैसा आजादी के समय हमें देखने को मिला था एक तरीके से अगर कहा जाए तो स्वतंत्रता की लड़ाई देश के पत्रकारों ने लड़ी थी. जिसमे रजा राम मोहन राय, बल गगाधर तिलक, माखन लाल चतुर्वेदी , महात्मा गाँधी ये पत्रकार ही तो थे. आज देश तकनीक रूप से काफी आगे निकल गया है इससे समाचार पत्रों में भी कई तब्दीलियाँ आई है. प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्रोनिक मीडिया और अब वेब मीडिया ये तब्दीली ही तो है. इसी तरह इनके प्रिंटिंग मशीनो में, गुणवत्ता में, रिपोर्टिंग टूल्स में, एडिटिंग टूल्स में कई सॉफ्टवेयर आये जो पत्रकारिता को और मजबूती प्रदान किये परन्तु फिर भी वर्तमान समय में कई ऐसी चुनौतियाँ है जिन्हें दूर करना समय की आवश्यकता है.
 कुछ प्रमुख चुनौतियां इस प्रकार है --
चुनौतियां
१.    सामाजिक सरोकार की चुनौतियां – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर आज मीडिया कुछ भी दिखा रहा है और कुछ भी परोस रहा है . ऐसा लगता है की समाज के पैसे पर फलने फूलने वाले इस मीडिया का सामाजिक सरोकारों से कोई नाता नहीं रह गया है. समाज में घटने वाली सकारात्मक खबरे मीडिया से बाहर की चीज़ हो गई है. सिर्फ और सिर्फ नकारात्मक ख़बरें ही दिखाई जा रही है. मीडिया को समज का दर्पण कहा जाता है. समज में कई ऐसी घत्नाएं होती है जो समाज में प्रेरणा देने का कार्य करती है जोकि खेल में हो सकती है, तैराकी में हो सकती है, पढाई में हो सहती है , प्रसाशनिक क्षेत्र में हो सकती है जो समज में अच्छा कार्य कर रहे है उन्हें मीडिया के माध्यम से लोगों को बताने की जरूरत है.
मीडिया के उद्देश्यों में चार प्रमुक बातें शामिल है- १- सुचना देना. २- जागरूक करना ३- मनोरंजन करना ४- शिक्षित करना . इन्ही चार प्रमुख बातों को ध्यान में रखकर हमें कार्यकरने की जरूरत है.
२.    राष्ट्र व् देश की सुरक्षा सम्बन्धी चुनौतियां – आज देश के समक्ष कई सारी चुनौतिया है और चाहे शिक्षा की चुनौती हो, कृषि की चुनौती हो, तकनीक की चुनौती हो, आर्थिक चुनौती हो तथा देश की सुरक्षा सम्बन्धी चुनौती हो. इन सबमे महत्वपर्ण  देश की सुरक्षा का मामला है. देश में कई ऐसी विदेशी  ताकतें भी है जो लगातार इस देश में आतंक के जरिये, नाक्सल्वाद के जरिये देश को आतंरिक रूप से तोड़ने का प्रयाश करती है हमे इसकी संवेदनशीलता को समझने की जरूरत है हमे मीडिया  कर्मी के रूप में यह ध्यान रखने की ज़रुरत है की हमारे लेखन में या हमारे रिपोर्टिंग में देश की संप्रभुता व् सुरक्षा को नुक्सान करने वाली खबरे मीडिया में नहीं आये. जिस प्रकार पिछले दिनों पठानकोट हमले के सम्बन्ध में एक संचार चैनल द्वारा सीमा लांघने की ख़बरें सामने आयी , ये हम सभी के लिए दुर्भाग्यजनक है.  मीडिया कर्मियों को किसी भी ऐसे काम को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है जिसकी गोपनियता भंग करने से देश की सुरक्षा के सामने  संकट उत्पन्न हो. किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा राज्य का सबसे महत्वपूर्ण तत्व मन जाता है . तात्पर्य यह है की हमारी  या हमारी सुचना की अभिव्यक्ति के अधिकारों की भी सीमा होती है. जब तक पत्रकारिता सामाजिक आग्रह, आन्दोलन या आकाँक्षाओं की वाहक थी, तब इन सीमाओं का आमतौर पर पालन होता था. यदि कहीं नहीं होता था तो समाज उसे सहीं नहीं मानता था . यह बात  बिलकूल सहीं है कि लेखक और पत्रकार या समाचारपत्र को दंड केवल पाठक दे सकता है. उसे पढने से इनकार करके. तब पाठक सबसे महत्वपूर्ण हुवा करता था. अब पाठक गौण हो गए है.
३.    कंपनी पालिसी की चुनौतिया - किसी भी समाचार पत्र के रिपोर्टर को अपने कार्यक्षेत्र में रिपोर्टिंग के दौरान कंपनी पालिसी के लीग पर चलने का दबाव तो रहता है . रिपोर्टिंग करते समय कई प्रकार की खबरे आती है इनमे कई रसूख दार लोगों से सम्बंधित भी होती है , परन्तु कई बार रिपोर्टर को ऐसी खबरों को नहीं करने का दबाव भी बनाया जाता है और यह बताया जाता है की – यह तो हमारी कंपनी पोलिसी के विरूद्ध है. इसी तरह उन्हें यह भी साफ़ साफ़ बताया जाता है की इनके-इनके खिलाफ कोई भी ख़बरें नहीं करनी है. इससे पत्रकार के आत्मसम्मान को निश्चित ही ठेस पहुँचता होगा. पहले समाचार पत्रों में एडिटर हुवा करते थे परन्तु आज वह पद मनेजिंग एडिटर का रूप ले लिया है. आज हर समाचार मैनेज किया जाने लगा है.
४.    बाजारवाद की चुनौतियाँ – आज का  मीडिया बाजारवाद से बहुत प्रभावित है वर्तमान समय को अगर  बाजारवाद का समय कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. आज  बाज़ार ही अब सब कुछ तय करने लगा है और मीडिया के माध्यम से बाज़ार यह बताने लगा है कि हमें क्या खाना है, क्या पहनना है, क्यों खाना है, क्यों पहनना है ये साड़ी चीजें मीडिया तय करने लगा है. मीडिया का ये हा काम कभी नहीं रहा है मीडिया के तो चार महत्वपूर्ण कार्य है – सुचना देना, जागरूक करना, शिक्षा देना , और मनोरंजन करना . परन्तु आज मीडिया में समाजिक  सरोकार के ख़बरें कम तथा बाज़ार की कब्रें ज्यादा दिखाई जा रही है. आज की मीडिया बाज़ार उन्मुख हो गई है. बाज़ार की खबरे हो लेकिन कितनी मात्रा में हो, कितना उसका संतुलन हो ये आज की सबसे बड़ी चुनौती है.
५.    सामाजिक सुरक्षा की चुनौतियां – निजी मीडिया कर्मियों की आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा का मसला इस वक्त अहम् है.इस मामले में निजी मीडिया प्रबंधन बड़े पैमाने पर अनैतिक हैं. कई न्यूज़ चैनल्स बंद हुए हैं मीडिया कर्मी बीस साल से १२-१४ घंटे छुट्टियाँ–वीकली ऑफ़ तक में काम कर रहे हैं . चैनल , अखबार स्ट्रिंगरों को परिवार चलने के लायक पैसे नहीं देते. ज्यादातर ऐसे लोग ही निजी संवाददाता है, जो जो दुसरे व्यवसाय पर निभर हैं. क्या ऐसे संवाददाता हर वक्त नैतिक मुल्यों वाली पत्रकारिता करेंगे ? क्या वे पत्रकारिता का इस्तेमाल अपना रसूख बढ़ने के लिए नहीं करेंगे? कस्बाई और छोटे जिला मुख्यालयों पर तैनात जो पत्रकार संपन्न नहीं है वे खुद बताते हैं की पुलिस- प्रशासन से पैसा या दूसरी चीजों का जुगाढ़ न करें तो कैसे चलेगा. बच्चे को अछे स्कूल  में पढाना है, तो फीस माफ़ करनी पड़ेगी. इसके लिए धौंस – धपाट की जाएगी या फिर प्यार मोहब्बत से काम होग, तो स्कूल के बारे में चढ़ा- बढाकर प्रचार के हर मौके का इस्तेमाल किया जायेगा. क्या यह नैतिक है ? सरकार को चाहिए की मीडिया से जुढ़े सबसे निचले तबके की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करे.
६.    सांस्कृतिक सरोकार की चुनौतियां- संचार पत्रों में आजकल यह देखा जा रहा है की कई प्रकार की निकृष्ट प्रवित्तियां हावी हो गई है. कामुकता का अतिरंजीत प्रदर्शन हो रहा है. इर्ष्या, वैर, असहिष्णुता संदेह सभी को परोक्ष रूप से प्रोत्साहित किया जा रहा है. उत्तरदायित्वहीनता का मीडिया में बोलबाला देखने को मिल रहा है. पश्चिमी संस्कृति का भौंडा प्रदर्शन मीडिया के माध्यम से सामने आ रहा है.. जो की भारतीय संस्कृति के लिए चुनौती साबित हो रही है. हम्रारी संस्कृति आज विकृत होती जा रही है  या फिर यूँ कहें की बाजारवाद के दबाव में हमारी संस्कृति को विकृत किया जा रहा है. समाज में घटने वाली अनैतिक ख़बरों को बड़े रूप में दिखाया जा रहा है वहीँ नैतिक खबर समाचार पत्र के किसी कोने में गूम हो जाती है. छात्तिश्गढ़ की प्रसिद्द ग्राम्य संस्कृति जिसमे – दिवाली के समय गया जाने वाला सुवा, ददरिया, रेला समाचार पत्रों में कई सालों से कभी दिखाया नहीं गया है. छात्तिश्गढ़ी संस्कृति समाचार पत्र से गायब से हो गए है. छात्तिश्गढ़ के प्रसिद्द व्यंजन ठेठरी, खुर्मी की जगह पिज़्ज़ा व् बर्गर ने ले लिया है. गिल्ली डंडे, खो-खो, कबड्डी की जगह  क्रिकेट वीडिओ गेम, ने ले लिया है. ऐसी बात नहीं है की ये समाज में नहीं है, समाज में है मगर हमें नजरिया बदलने की ज़रुरत है . एक कहावत है – “दुनिया में हर चीज़ खूबसूरत है......बस कमी है तो बस हमारे देखने की नजरिये की.”  
७.     विज्ञापन की चुनौतियां – विचारो का स्वतंत्र बाज़ार वास्तविक स्वतंत्र बाज़ार के ही समतुल्य है, जहाँ सुचना और संवाद ऐसे माल हैं जिनका उत्पादन हो सकता है और बिक्री भी. इसका मतलब ये तो नहीं की सरकारी कायदे –कानून से मुक्त होकर व्यापार करने का अधिकार मिलना चाहिए. यह अधिकार अगर किसी और व्यापार को नहीं मिलता तो प्रेस और मीडिया को क्यों होना चाहिए ? सरकार से स्वतंत्रता से मतलब समाज से भी स्वतंत्र होना होता है  ?  समज का एक वर्ग अगर ऐसा मानता है की प्रेस के किसी काम से उसकी हानि हुई तो वह क्या करे ? जब पाठक समाचार पत्र के लिए प्रमुख हुवा करता था तो इस बात का भी ध्यान रखा जाता था की पाठक आहात न हो. लेकिन अब जबकि पाठक नहीं. विज्ञापनदाता ही सबसे महत्वपूर्ण है तो उससे डर कैसा ? निस्संदेह अगर समाज का वह वर्ग बड़े रसूख वाला हो तो उसके पास अदालत के दरवाजे खुले हैं, लेकिन जिसके पास ये सुविधाएँ जुटाने का उपाय नहीं है, वह तो चुपचाप सहने को मजबूर है. मीडिया विशेषज्ञ सी. पी. स्कॉट प्रेस के बारे में कहते हैं – मीडिया के दो पक्ष होते हैं यह अन्य प्रकार के व्यापार की तरह एक व्यापार है... लेकिन यह व्यापार से कहीं अधिक है. इसका नैतिक व् भौतिक दोनों तरह का जीवन होता है और इन दोनों तरह की शक्तियों के संतुलन से ही इसके चरित्र और प्रभाव तय होते हैं.
इसी बात को आगे ले जाते हुए प्रसिद्द पुस्तक “ द ड़ेंज़रस एस्टेट “ के लेखक फ्रांसिस विलियम्स कहते है – इन दो उद्देश्यों (सामाजिक दायित्व और आर्थिक दायित्व )की पूर्ति के अनुपात से ही एक समाचार पत्र का सही आंकलन हो सकता है.
८.    लिंगभेद संबंधी चुनौतियां – समाचार पत्रों में आजादी के ६८ वर्षो के बाद भी महिलावों की स्थिति कुछ अछि नहीं कही जा सकती है. देश के प्रमुख संमाचार पत्रों की अगर बात करें तो  आज भी एक भी माहिला संपादक नहीं है हिन्दुस्थान में एक समय मृणाल पण्डे संपादक रही है. कई अख़बारों में संवाददाता के रूप में अगर महिला कर्मी कार्यरत है तो उन्हें छोटी बीट ही दिया जाता है उन्हें बड़ी बीट के लायक नहीं समझा नहीं जाता है.   भारत में अपवाद स्वरूप अगर देंखे तो ग्रामीण पत्रकारिता के क्षेत्र में इन भयानक स्थितियों के बावजूद आशा की कुछ किरणें भी नजर आती हैं. उदाहरण के तौर पर खबर लहरियानाम का एक ग्रामीण अखबार है जो उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण इलाकों में अच्छी पकड़ रखता है. इसकी प्रसार संख्या भी 80 हजार से ऊपर है. यह अखबार दूसरों से इस मामलों में अलग है, क्योंकि इसे पूरी तरह से महिलाएं ही प्रकाशित करती हैं. अखबार की सारी पत्रकार भी महिलाएं हैं.
९.    भाषा व् सामग्री चयन की चुनौतियां – आज निजी चैनलों की सामग्री का चयन  ऐसा है की आप परिवार के साथ सुन देख नहीं सकते हैं. भाषा ऐसी संवेदना है जो व्यक्ति, समाज और देश राष्ट्र के पुरे व्यक्तित्व का निर्माण या विध्वंस करती है. समाचार पत्रों में जो भाषा प्रयोग में लाई जाती है जो की भाषा का विकृत रूप ही कहा जा सकता है.जो की हिंगलिश के रूप में हमें दिखाई पड़ता है. जैसे- कॉलेजों,
१०.            जाती भेद सम्बन्धी चुनौतियां – मीडिया में जातियों का असंतुलन ख़बरों में तो दिखाई देता ही है. इसके साथ-साथ इसके ढांचे में भी यह असंतुलन काफी मात्र में देखने को मिलता है. दलित पत्रकार तथा आदिवासी पत्रकार मीडिया में नगण्य है . राष्ट्रीय संचार पत्रों की बात तो छोडीय लोकल समाचार-पत्रों में भी एक भी दलित /आदिवासी पत्रकार दिखाई नहीं देते है. ये समरसता की दृष्टी से सबसे बड़ी चुनौती है. पहले हमारा समाज समरसता का प्रतीक था हमारे समाज में विभिन्न जातियों का दुसरे जातियों के साथ एक सम्मान जनक सम्बन्ध स्थापित था हर समाज को दुसरे समाज की जरूरत महसूस होती थी. आपसी भाईचारा कायम था परन्तु समाज का संतुलन समाचार पत्रों के माध्यम से दिखाई नहीं देता है. अगर समाचार पत्र समाज की पथ प्रदर्शक के रू में है तो उसे सामाजिक संतुलन को बढ़ावा देना चाहिए. 
११.            नगरीय क्षेत्रों से सम्बंधित चुनौतियाँ - समाचार – पत्रों में प्रायः यह देखने को आता है नगर के संभ्रांत परिवारों के ही क्षेत्रों की खबरे अथवा समस्याएँ ही देखने को मिलती है , गरीब व्  झोपड़पट्टी इलाको में घटने वाली आगजनी, लूटपाट, आतंक, छेड़छाड़ की ख़बरें समाचार-पत्रों में देकने को नहीं मिलती है यही नहीं वह होने वाले आयोजन दुर्गापूजा, गणेशपूजा व् अन्य महिलाओं की हरियाली वगैरह की गतिविधियों से सम्बंधित समाचार  में देखने को ही नहीं मिलती. समाचार पत्रों को या रिपोर्टर को क्षेत्रीय संतुलन भी बनाना आवश्यक है जिससे समाज में रहने वाले हर क्षेत्र से सम्बंधित खबरे प्रकाशित किया जा सके जिससे गरीब व् झुग्गी बस्तियों के ख़बरों को समाचारपत्रों में स्थान देने से उनका मनोबल व् आत्मम्मान बढेगा वहां का विकास होगा वहां के प्रभिभाओं को सम्मान मिलेगा. तभी समाज में सद्भावना का निर्माण होगा. समज आगे बढेगा.
१२.            आर्थिक चुनौतियां – समाचार पत्र कार्यालयों में कार्य करने वाले पत्रकारों को उचित मानदेय नहीं मिल पाना उनके लिए बड़ी चुनौती साबित हो रही है. तथा कई समाचार पत्रों में उन्हें जो सुविधाएँ मिलनी चाहिए वो नहीं मिल पाती . उनका भी परिवार होता है समाज में कार्य करने वाले हर व्यक्ति को सम्मानजनक वेतन तो मिलना ही चाहिए. एक कहावत है – “भूखे पेट भजन न होए गोपाला “ अगर हमारा कलमवीर भूखा होगा तो हमारे समाज को आगे ले जाने में कैसे मदत कर पायेगा. इसलिए मेरा स्पष्ट रूप से मनना है की पत्रकारों, संवाददाताओं तथा तमाम समाचार पत्रों से जुढ़े हुए कर्मियों का वेतन बढ़ाना चाहिए.  पत्रकारों को बहुत ही कम वेतन पर गुजारा करना पड़ता है, जिसकी वजह से उन पर दबाव ज्यादा होता हैं. पत्रकार संगठनों की कमी और कॉन्ट्रैक्ट (ठेका) आधारित नौकरी के चलते पत्रकारों की स्वतंत्रता खत्म हो रही है.
१३.            नैतिक सरोकार की चुनौतियां – एक बड़ा सवाल तो यह है की क्या पत्रकार समाजीक  मूल्यों में आई गिरावट से अछूते रह सकते हैं ? संसद में कामकाज कम विरोध ज्यादा होता है.... सियासत मारपीट और हत्याओं तक जा चुकी है. लोग मान चुके है की रिश्वत नैतिक आचरण है. न्यायपालिका  पर  काम का इतना दबाव है की मुख्य न्यायाधीस की आंखे डबडबा जाती है . लेकिन मुकदमे लटकाने का काम कानून के जरिये होता है जब देश चलने वाले सभी खंभे सवालों  के घेरे में हों , तब पत्रकारिता सौ प्रतिशत नैतिक कैसे रह सकता है. मीडिया में नैतिकता का दायरा बड़ा है देष –राष्ट्र –राज्य के लिए प्रेम, समग्र संस्कृति, विभिन्नातओं  में एकता, रीतियों, खेल कूद, विकास को उर्जा देने वाले शोध कार्यों, वगैरह को सकारात्मक प्रोत्साहन यानी अचछे का प्रचार और कुरीतियों पर प्रहार मीडिया का काम है. लेकिन दुभाग्य से ऐसा नहीं हो पा रहा है. मीडिया अब मालिकों, पत्रकारों, और दुसरे कर्मचारियों की निजी हैसियत बढ़ने का औजार बस लगता है , ज्यादातर चैनलों को सनसनी पसंद है ब्रेकिंग न्यूज़ की होड़ में गुस्सा  और हंसी साथ-साथ आती है चैनल सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिक सरोकारों के लिए राशिफल और समृधि के उपाय वाले कार्यक्रम चलते हैं या चुनाओं , ग्रहण या किन्ही खगोलीय घटनाओं के वक्त ज्योतिषों की गपशप करतें है कुम्भ, अर्ध कुम्भ के वक्त कवरेज बढ़ता है लेकिन सतही होता है. 
१४.            धार्मिक सरोकार की चुनौतियां- संमाचार पत्रों में एक बात हमेश पढाई जाती है- “कुत्ता आदमी को काटे तो न्यूज़ नहीं बनता है बल्कि आदमी कुत्ते को काटे तो न्यूज़ बनता है” जो की अपने आप में हास्यप्रद लग्ता है . धार्मिक संस्थानों द्वारा कई अछे काम किये जाते है, चाहे हिन्दू, मुस्लिम सिक्ख तथा इशाई जो भी हो परन्तु संमाचार पत्रों में अक्सर इनके बीच धार्मिक वैमन्स्व सम्बन्धी, तकरार सम्बन्धी ख़बरें ही दिखाई जाती है जिससे धर्म सम्बन्धी अछी ख़बरें बहुत ही कम देखने को मिलती है. कुम्भ मेला, पारंपरिक धार्मिक अनुष्ठान , पारंपरिक मेला, पारंपरिक पर्व , पारंपरिक त्यौहार समाचार पत्रों से गायब से हो गए है. मेरा मानना है की समाचार पत्रों को समाज में आस्तिकता का भव जगाने वाला, प्रेरणा देने वाला मार्गदर्शक के रूप में कार्य करना चाहिए.   
१५.            अध्ययन सम्बन्धी चुनौतियां – समाचार पत्रों में जनहित  सम्बन्धी बातों को नज़र अंदाज किया जाने लगा है. सरकारी योजनाये जैसे अल्संख्यक, पिछड़े, जनजाति, महिलाओं तथा गरीब भाईयों से सम्बंधित ख़बरों को ज्यादा से ज्यादा दिखाकर समाज को लाभ प्रदान करना चाहिए.. जिससे उनका आर्थिक , सामाजिक, व्यतित्वा विकास हो सके. स्कॉलरशिप, आरक्षण तथा अन्य योजनाओं का स्पष्ट अध्ययन संवाददाताओं के द्वारा किया जाना आवश्यक है. नहीं तो एक कहावत है- “अधजल गगरी चालकत जाये , भरी गगरिया चुपके जाए “.  क्योंकि जिस तरह संपूर्ण ज्ञान समाज को दिशा देने का कार्य करता है उसी प्रकार  अधुरा  ज्ञान समाज को विपरीत परिस्थिति में ले जाकर गर्त में धकेल देता है. अतः संवाददाता को अपने उस कार्यक्षेत्र का संपूर्ण ज्ञान होना चाहिए तभी वो समाज को दिशा दे सकता है.