Monday, July 14, 2014

जनजातीय पत्रकारिता इतना उपेक्षित क्यों है ?

             छत्तीश्गढ़ और मध्य प्रदेश दोनों ही राज्यों में आदिवासियों की जनसँख्या बड़ी तादात में है बल्कि इन दोनों राज्यों की पहचान आदिवासी राज्य के रूप में है. इन दोनों प्रदेशों की  पत्रकारिता जनजातीय मुद्दों पर केन्द्रित होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है. छत्तिश्गढ़ में  जनजातीय आबादी ३२ प्रतिशत होने बावजूद इस समाज के मुद्दे हासिये पर चले गए है. आदिवासी सम्बन्धी कानून , पैसा एक्ट , ५वीं व् ६वीं अनुसूची ऐसे कानून है जिन पर चर्चा होना आवश्यक है अगर इन विषयों पर चर्चा नहीं होगी तो ये अधिकार जनजातीय बन्धुवों को कैसे पता लगेगा . इन विषयों पर तो छत्तिश्गढ़ शासन के अंतर्गत स्थापित विभिन्न विश्वविद्यालयों , महाविद्यालयों व् स्वयंसेवी संस्थाओं के मध्यम से कार्यशाला, संगोष्टी आयोजित किये जाने चाहिए नहीं तो भारत के विधि की रक्षा कर पाने में हम असफल साबित होंगे  क्योंकि भारत का संविधान यह कहता है कि भारत में समता और समानता के प्रयासों पर बल दिया जाना चाहिए  नहीं तो इस सुन्दर भारत के निर्माण में वीर नारायण सिंह, बिरसा मुंडा, कंगला मांझी  जैसे जनजातीय वीर सपूतों की ख़त्म होती विरासत को रोकने में हम सफल नहीं हो पाएंगे .

           आज जनजातीय पत्रकारिता शिक्षा के अभाव के कारण जनजातीय समाज के उत्थान के लक्ष्य को हम प्राप्त करने में असफल साबित हो रहे है यही नहीं सदियों से फैली जनजातीय भ्रान्ति वैसे के वैसे ही बनी हुई हाई. जनजातीय पत्रकारिता के प्रति यह सोंच उचित नहीं है. 

           आज जबकि हर क्षेत्र में विशेषज्ञ पत्रकार की बात हो रही है ऐसे में जन जातीय पत्रकारिता इतना उपेक्षित क्यों है ?