Saturday, February 17, 2018

छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक स्थिति पर विष्लेषणात्मक अध्ययन

“ छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक स्थिति पर विष्लेषणात्मक अध्ययन “

बस्तर के शहीद गुण्डाधुर के नेतृत्व में 1910 में संचालित भूमकाल आंदोलन को आज 100 वर्ष से भी ज्यादा हो चुके हैं भूमकाल की याद में दण्डकारण्य क्षेत्र में हर जगह ं भूमकाल का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है, आज  भूमकाल आंदोलन के 100 वर्ष के बाद भी आदिवासियों की सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता है। कई सत्ता परिवर्तन हुए पर आज भी आदिवासियों की स्थिति वहीं की वहीं है। आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के प्रयास अब भी खोखले दावे ही साबित हो रहे हैं अनुस्ूाचित क्षेत्रों की अगर बात करे तो सरकार का ध्यान आदिवासी मुट्ठों के प्रति कभी गंभीर रहा ही नहीं है । चाहे वह पेसा एक्ट का मामला हो या वन अधिनियम की बात हो तथा खनिज संसाधनों की रायल्टी से संबंधित मुद्दे हो ये एैसे मुद्दे हैं जिन पर सरकार को विषेष रूप से प्रयास करने की आवष्यकता महसूस होनी चाहिए तभी आदिवासी हितों को संरक्षण मिल पायेगा।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (4), 16(4), 46, 47, 48(क),49 243(घ)(ड), 244(1), 275, 335, 338, 339, 342 तथा पांचवी अनुसूचि के अनुसार अनुसूचित जनजातियों के राजनैतिक, आर्थिक, सास्कृतिक तथा शैक्षणिक विकास जैसे कल्याणकारी योजनाओं के विषेष प्रावधान की बात कही गई है परंतु इसे अब तक लागू नही कर पाना वाकई सरकार के लिए चिंता का विषय  है।
भारतीय संविधान के पांचवी अनुसूचि के अनुसार छत्तीसगढ़ के अधिसूचित क्षेत्रों जैसे सरगूजा, जषपुर, कोरिया, रायगढ़, देवभोग, कोरबा, बिलासपुर, कवर्धा, मानपुर, मोहला, गरियाबंद, सिहावा, नगरी डौन्डी लोहारा, कांकेर, बस्तर, दन्तेवाड़ा, नारायणपुर एवं बीजापुर में पंचायतीराज संस्थाओं की भांति नगरीय निकाय चुनाव में भी अघ्यक्ष एवं महापौर के पद आदिवासियों के लिए प्रावधानित होने थे परंतु समय पर इसे लागू नही कर पाने के कारण राज्य के 4 नगर निगम, 9 नगर पालिका एवं 46 नगर पंचायतों में अब तक हुए तीन आम चुनाओं में लगभग 150 से अधिक आदिवासी जनप्रतिनिधियों  को महापौर व पंचायत अध्यक्ष के पदों से हांथ धोना पड़ा है, जो वाकई चिंताजनक है। 
भू-राजस्व संहिता 1959 की धारा -165 (6-ड) तथा 170 (ख) के तहत यह स्पष्ट रूप से ज्ञात है कि अनुसूचित जनजातियों के अचल संपत्तियों के संरक्षण की बात हो या लघु वनोपज जैसे इमली, अमचूर, महुआ, चिरौजी, तिखुर, आदि के प्रसंस्करण के व्यवसाय की बात हो आदिवसी हमेंषा से ठगे ही गये है। यह सर्वविदित है कि आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध खनिज संसाघनों से सरकार को अरबाोें रूपये के राजस्व की प्राप्ति होती है या सीधे शब्दों में कहा जाए तो सरकार के आय के स्रोत इन आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध वन संसाधन तथा खनिज संसाधन  ही हैं, परंतु इस राजस्व का कितना प्रतिषत हिस्सा उन अनुसूचित क्षेत्रों के राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक विकास में खपत किया जाता रहा है ।
 अनुसूचित क्षेत्रों में सरकार द्वारा जो उद्योग-धंधे स्थापित किये जा रहे हैं उनमें प्रभावित ग्रामीणों व विस्थापित परिवारों केा प्रदान की जाने वाली मुआवजा राषि की बात हो या विस्थापित परिवार के सदस्यों को नौकरी का मुद्दा हो या फिर विस्थापित परिवार के सदस्यों के शेयर होल्डिग तय करने की बात हो इस पर सरकार को वाकई गंभीरतापूर्वक विचार करने की जस्रत है क्योकि किसी भी समुदाय के व्यक्ति के लिए आत्मसम्मानपूर्वक जीवन-यापन के लिए रोटी, कपड़ा और मकान के साथ-साथ आत्मसम्मान भी जरूरी है । छत्तीसगढ़ राज्य सांस्कृतिक वैषिष्टयता वाला प्रदेष है जहां की आदिवासी संस्कृति अपने आप में विषिष्टता लिए हुए है छत्तीसगढ़ के  लोकनृत्य जैसे नाचा, पंडवानी, गम्मत नृत्य, दंडामी नृत्य, मांदरी लोकनृत्य, रेला, ददरिया जैस लोकगीत, गोधना कला आदिवासी चित्रकला तथा आदिवासी लोककलाओ जैसे काष्ठ कला, ढोकरा कला ,षिल्पकला, चित्रकला आदि को उनसे जुड़ी तमाम विधाओं के साथ सहेजनेे की सबसे ज्यादा जरूरत है, क्योकि लोककलाओं को बचाना है और उन्हें जीवनोपयोगी रखना है तो उनके साथ जुड़े संस्कारों को भी बचाना होगा, तभी लोककलाओं को उसकी आत्मा के साथ बचाया जा सकता है। तभी छत्तीसगढ़ राज्य की सांस्कृतिक वैशिष्टयता को संरक्षित करने में हम सफल हो पायेंगे।
छत्तीसगढ़ के इन पारंपरिक लोककलाओं, लोकनृत्यो व लोकगीतों के विकास तथा संवर्धन हेतु हमारे विभिन्न विष्वविद्यालयों द्वारा संचालित पाठ्यक्रमों में स्थान देने की जरूरत है, तथा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी गोंडी, हल्बी, भतरी जैसी बोलियों को संरक्षित करने के आदिवासी भाषा व लोककला संस्थान स्थापित करने के प्रयास किये जाने की आवष्यकता है, क्योकि ये आदिवासी बोलियां, ये लोककलाएं, ये नृत्य, ये चित्रकला तथा मूर्तिकला हजारों वर्षों के अनुभवों को अपने में संचित तथा समाहित किये हुये हैं। सरकार द्वारा  आदिवासी लोककला संग्राहलयों, सांस्कृतिक केन्द्रों, लोकसंगीत नाटक अकादमी तथा लोककला वीथिका की स्थापना किये जाने की आवष्यकता है, जिससे लोगों में इन विलुप्त हो रही लोककलाओं के प्रति जागरूकता पैदा हो सके तथा साथ-साथ इसका भी ख्याल रखा जाना आवश्यक है कि बड़ी तेजी से उभरते महानगरीय संस्कृति की चकाचौंध का प्रभाव इन लोककलाओं पर न पडे । लोककलाओं को आज व्यवसाय का माध्यम बनाने हेतु भी आवष्यक कदम उठाने की जरूरत है जिससे इन विधाओं से जुड़े लोककलाकारों को आजीविका के साधन उपलब्ध हो सकेंगे तभी छत्तीसगढ़ का सही मायने में विकास हो पायेगा। 
आज भारत जैसे विकासषील देष की अगर बात करें तो भारत में लगभग 70 प्रतिषत जनता अभी भी गांवों में निवास करती है और जहां ं साक्षरता का प्रतिषत भी  अमूमन यही दिखलाई पड़ता है। अन्य विकसित देष जैसे अमेरिका, रूस, जापान तथा चीन की अगर बात करें तो वहां भी आधारभूत विकास पर ज्यादा ध्यान दिया गया तथा सामुदायिक सहभागिता के आधार पर ही विकास के नये कीर्तिमान स्थापित किये गये, इसलिए आधारभूत विकास व सामुदायिक सहभागिता के सिद्धांत के बिना कोई भी देष विकास की ओर अग्रसर नहीं हो सकता है।नक्सलवाद आज छत्तीसगढ़ जैसे शांत और सौम्य राज्य के लिए ही नही बल्कि समूचे भारत देष के लिए नासूर बनता जा रहा ह,ै इस नक्सलवाद ने न जाने कितने बेगुनाहों को मौत के मुंह में धकेल चुका है ? न जाने कितनीं महिलाओं को विधवा बना चुका है ? न जाने इस नक्सलवाद से कितने बच्चों को अनाथ कर दिया ? कितनों के घर तबाह हो गये ? और ये मौत का तांडव थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। न जाने ये सिलसिला कब तक एैसे ही चलता रहेगा ? सुंदर और शांत बस्तर आज नक्सली हिंसा के कारण युद्धभूमि में तब्दील हो गया है, आये दिन न जाने कितने आदिवासियों की हत्यायें हो रही है या फिर कितने लोग अगवा कर लिये जा रहे है। स्कूलों की बात तो छोडि़ये बस्तर में अब तक 8 हजार गांवों का नामोनिषान मिट चुका हैं, 60 हजार आदिवासी अस्थाई केम्पों में बदहाल जीवन जीने को मजबूर हैं लाखों लोग बेघर हो गये हैं । पर इसका सकारात्मक हल हम सबको मिलकर ही ढूढना होगा। नही तो आने वाली पीढ़ीयां हमें कभी माफ नहीं कर पायंेगी। नक्सलवादियों और माओवादियों के द्वारा की जाने वाली हत्याओं का सिलसिला अभी भी जारी है। अभी हाल ही में उन्होंने छत्तीसगढ़ में माझीपारा, से सुकमा के कलेक्टर श्री एलेक्स पॉल मेनन को अगुआ किया था तथा उनके दो सुरक्षाकर्मियों की बीच बाजार में हत्या कर दी ।तथा इस घटना से एक महीने पहले उड़ीसा से युवा विधायक को अगुआ किया था जिसे बड़ी मषक्कत के बाद छोड़ा गया। माओवादियों के द्वारा 2005 से अब तक वे 2670 से भी ज्यादा लोगों की हत्या कर चुके हैं जिनमें 1680 से भी ज्यादा ग्रामीण व दूसरे लोग हैं और 1000 से अधिक सुरक्षा बलों के जवान शामिल हैं। 2010 में ही अगस्त तक माओवादी 460 से ज्यादा लोगों की हत्या कर चुके हैं जिनमें से सुरक्षा बलों के 167 जवान हैं और बाकी सामान्य नागरिक जिनमें वे ग्रामीण भी शामिल हैं जिनके बारे में उन्हें शक था  िक वे पुलिस के खबरी हैैं। लाल आतंक से ग्रस्त राज्यों में छत्तीसगढ में माओवादी सबसे ज्यादा सक्रिय हैं। वहां उन्होंने सुरक्षा बलों के सबसे ज्यादा जवानों को मारा है। उसके बाद पष्चिम बंगाल का नंबर आता है । इसके बाद ओड़ीसा है और फिर झारखण्ड और बिहार। 2009 में माओवादियों और नक्सलवादियों की हिंसा में करीब 1000 लोगों की मौत हुई है। इस आंकड़े में 392 नागरिक, 312 सुरक्षाकर्मी और 294 नक्सलवादी शामिल हैं। 2008 में उन्होंने 210 नागरिकों व 214 सुरक्षाकर्मियों को मारा जबकि 214 माओवादी भी मारे गये। टाईम्स ऑफ इंडिया के लिए आई एम आर बी द्वारा तेलांगाना के माओवादी ग्रस्त जिलों में किये गये एक सर्वे से हैरतअंगेज खुलासे हुए है। ये वही जिले हैं जहां कभी नक्सलियांे का बोलबाला हुआ करता था। आंध्रप्रदेष में नक्सल समस्या पर सरकार मानती है कि यहां समस्या पर काबू पाया जा चुका है लेकिन सरकार को अब तक इस बात की खबर नहीं है कि लोगों के दिलों में नक्सली ही राज कर रहे है। इस सर्वे में शामिल 58 प्रतिषत लोगों का मानना है कि नक्सलियों से ज्यादा सरकार उनके लिए बुरी साबित हुई है। करीब 50 प्रतिषत लोगों ने साफ कहा कि नक्सलियों के डर से सरकार पर दबाव बना  िकवह राज्य में विकास कार्य करें । केवल 34 प्रतिशत लोगों ने माना कि राज्य से नक्सलियों का प्रभाव कम हो जाने के बाद से उनके जीवन स्तर में सुधार हुआ है। हैरत की बात तो यह है कि सर्वे में शामिल करीब 60 फीसदी लोगों ने नक्सलियों के मुठभेड़ में मारे जाने के दावों को फर्जी बताया। इन लोंगों का मानना है कि उन्हें इन मुठभेड़ों की सचाई पर संदेह है। केवल 34 प्रतिषत लोगों ने सुरक्षा एजेंसियों द्वारा नक्सलियों को मार गिराने को सहीं माना जबकि 60 प्रतिषत लोगों ने इसे गलत ठहराया।
योजना आयोग के भूतपूर्व सदस्य एवं नेशनल एडवायजरी काउंसिल (राष्ट्रीय सलाहकार परिषद) के वर्तमान सदस्य श्री एन. सी. सक्सेना द्वारा एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि विकास की रफ्तार में कहीं न कहीं आदिवासियों के हितों की अनदेखी की जा रही है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देष में हो रहा विकास आदिवासियों को संपन्न न बनाते हुए उनका नुकसान कर रहा है, घर से बेदखल होने के बाद आदिवासियों का व्यवस्थापन सहीं रूप से न होना विकास के प्रति कू्रर मजाक है, वन संपदाओं का उपयोग जहां व्यावसायिक मुनाफे के लिए हो रहा है, इसके साथ ही वन से जुड़े आदिवासियों के हितों का संरक्षण नहीं किया जा रहा है, एसी स्थिति में आदिवासियों में असंतोष बढ़ रहा है। यह उल्लेखनीय है कि श्री सक्सेना द्वारा उड़ीसा के कालाहांडी जिले के नियामगिरी क्षेत्र में पर्यावरण की सुरक्षा के कारण तथा उनसे जुड़े आदिवासियों के हितों को ध्यान रखकर बेदांत परियोजना को नामंजूर करने की सिफारिश की गई थी, जिसके पश्चात राजनीति में उथल-पुथल मची हुई है, यदि विकास का अर्थ मानव जीवन को स्वस्थ बनाना है तो किसी थी परियोजना में आदिवासी हितों का संरक्षण एक प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए और यदि आदिवासियों के हितों की तिलांजली देकर पूंजीपति प्रेरित मुनाफे को महत्व देते हुए विकास की परिकल्पना की जाती है तो उसका तीव्र विराध खास तौर पर किया जाना समय की पुकार है।
नक्सल पीडि़त क्षेत्रों में आदिवासियों के लिए निर्धारित पैसों में से कितना पैसा खर्च हो पाता है। एक अनुमान के अनुसार भ्रष्टाचार देष पर हर साल 2,50,000 करोड़ रूप्ये से ज्यादा का बोझ डाल रहा है। यह सरकारी पैसा बड़ी संख्या में गरीबों के पास पहंुचना था, लेकिन भ्रष्ठ लोगों की जेबों में पहुंच रहा है। 2009 में लोकसभा चुनाव में 10000 करोड़ रूप्ये की रकम खर्च हुई थी जिसमें से 1300 करोड़ रूपये चुनाव आयोग द्वारा, 700 करोड़ रूपये केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा, 8000 करोड़ राजनीतिक पार्टियों और 543 सीटों के उम्मीदवार द्वारा खर्च किये गये थे। 
संयुक्त राष्ट्र संघ के ताजे रिपोर्ट बतलाते हैं कि दुनिया एक बार फिर खाद्यान्न संकट के मुहाने पर खड़ी है। भारत जैसे विकासषील देषों में हर साल खाद्यान्न के दाम करीब 15 फीसदी तक बढ़ रहे हैं। ‘‘युनाइटेड नेषन वर्ल्ड फूड प्रोग्राम‘‘ का कहना है कि पूरे दुनिया में भूखे लोगों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है । इन दिनों मंहगाई लोगों का जीवन मुष्किल बना दिया है। मगर जब सट्टा बाजार में कमोडिटी (वस्तुओं) के दाम बढ़ते हैं तो बाजार से जुड़े लोग मुनाफा काटते हैं। मुनाफाखोरी का यह खेल खाद्यान्न संकट का अहम कारण है। संयुक्त राष्ट्र संघ के विषोषज्ञों का मानना है कि कमोडिटी मार्केट का खेल ही दुनिया में भूख व खाद्यान्न संकट तेजी से बढ़ा रहा है। यूएन विषोषज्ञों के अनुसार दुनिया भर में पेंषन, बड़ी निधियां व बड़े बैंकों ने भारी मात्रा में जिस कमोडिटी बाजार में पैसा लगाया है इसके चलते खाद्यान्न के मामले में अस्थिरता बढ़ रही है।यूएनडीए के रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में 2 करोड़ 20 लाख मीटिक टन अनाज की कमी है। पूरी दुनिया में एक तरफ विकास का ढिंढोरा पीटा जा रहा है वहीं एक बड़ी आबादी को पेट भर खाना तक नसीब नहीं है। इन सभी मानव निर्मित समस्याओं के समाधान के उपाय हमे अब तलाषने ही होंगे।
आज अगर हम विकास की बात करते हैं तो उस विकास में सिर्फ सिमित लोगों का विकास ही शामिल हैं, संपन्नता की पहुंच सिर्फ कुछ ही लोगों तक सिमित है और देष की बाकी जनता उसी बदहाल जीवन जीने के लिए मजबूर है, देष की आजादी के 65 वर्ष पूर्ण करने के बाद भी साक्षरता का लक्षित दर अभी तक हासिल नही किया जा सका है, यूनेस्को के ताजे आंकड़े बताते हैं कि भारत अभी तक मात्र 65 फीसदी साक्षरता का दर हासिल कर सका है, जो कि लक्ष्य से कोसो दूर है। 
ग्रामीण भारत की समस्याओं को प्रखर ढंग से उठाने वाले व मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध अंग्रेजी पत्रकार पी. साईंनाथ ने भी मीडिया के कारपोरेटीकरण की प्रवृत्ति पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए पिछले दिनों कहा था कि पिछले कुछ वर्षो से यह देखा जा रहा है कि, मीडिया आम आदमी से दूर होते चले जा रहे हैं, और पत्रकारों की नौकरी भी इसमें काफी असुरक्षित हो गई है। पिछले दो वर्षों में देशभर में करीब 3 हजार से अधिक पत्रकारों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी है। इसका सबसे बड़ा कारण मीडिया का बाजारवाद के प्रति बढ़ती आस्था है। आज मीडिया विज्ञापन, बालीवुड और कारपोरेट घराने तक सीमित हो गया है। वह कुछ वर्षों से इतना व्यावसायिक होता जा रहा है कि खबरों की खरीद फरोख्त से नहीं बच सकता। आजादी के बाद इतना बड़ा कृषि संकट देश में पैदा नहीं हुआ था आर्थिक मंदी के दौर में 5 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरी गंवाई लेकिन मीडिया के लिए यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है । अधिकतर अखबारों में कृषि तथा आम जनता से जुड़े मुद्दों को कवर करने के लिए पूर्ण कालिक पत्रकार नहीं है। यहां तक कि अंग्रजी के दो बड़े अखबारों में तो रिसेषन, आर्थिक मंदी के इस्तेमाल पर रोक लगी है। कारपोरेट जगत ने मीडिया का अपहरण कर लिया है। उन्होंने कहा कि आज मीडिया में आदिवासियों और दलितों का एक भी प्रतिनिधित्व नहीं है। आज भुखमरी, गरीबी, नक्सली हिंसा के सवाल गौंण होकर रह गये है। आज नक्सलवाद चरम पर है देष में इस पर बहस तो खूब हो रहे हैं राष्ट्रीय गोष्ठियां आयोजित की जा रहीं है कि आखिर इन सबका निदान कब तक संभव है।

लेखक परिचय- लेखक डॉ. आशुतोष मंडावी कुषाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विष्वविद्यालय, रायपुर छत्तीसगढ़ के स्थापना से ही जुडे़ हुए हैं और वर्तमान में विज्ञापन एवं जनसंपर्क अध्ययन विभाग के विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत हैं। आपकी सामाजिक मुद्दों पर आधारित लेखन में गहरी रूचि है समय-समय पर आपके लेख विभिन्न पत्र-पतिकाओं प्रकाषित होते रहते हैं। 

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