Saturday, February 17, 2018

भारत में जनजातीय क्षेत्रों में षिक्षा की स्थिति पर विष्लेषणात्मक अध्ययन

“भारत में जनजातीय क्षेत्रों में षिक्षा की स्थिति पर विष्लेषणात्मक अध्ययन “

जनजातियां विश्व के लगभग सभी भागों में पायी जाती है, भारत में जनजातियों की संख्या आफ्रीका के बाद दूसरे स्थान पर है। प्राचीन महाकाव्य साहित्य में भारत में निवासरत विभिन्न जनजातियों जैसे भारत, भील, कोल, किरात, किननर, कीरी, मत्स्य व निषाद आदि का वर्णन मिलता है। प्रत्येक जनताति की अपनी स्वयं की प्रशासन प्रणाली थी, व उनके मध्य सत्ता का विकेन्द्रीकरण था। परंपरागत जनजाति संस्थाएं वैधानिक, न्यायिक तथा कार्यपालिक शक्तियों से निहित थी। बिहार के सिंहभूम में मानिकी व मुण्डा तथा संथाल परगना में मांझी व परगनैत की प्रणालियां पारंपरिक संस्थाओं के कुछ उदाहरण है जिनका संचालन जनजातीय मुखियाओं के द्वारा किया जाता था। जो कि अपने-अपने जनजातीयों की सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक मामलों पर विशिष्ट प्रभाव रखते हैं।
जनजातीय के उद्भव के संदर्भ में भारत में जनजाति कई जिलों से मिलकर बनी एक उच्चतम राजनैतिक इकाई थी जो कि कबीलों के रूप् में संयोजित थी। जिसके अधिकार क्षेत्र में एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र था और अपने लोगों के उपर प्रभावी नियंत्रण रखता था। किसी विशेष जनजाति का निश्चित भू-अधिकार क्षेत्र का नामकरण उस जनजाति के उपर हुआ करता था। एैसा विश्वास किया जाता है कि भारत देश का नाम शक्तिशाली भारत जनजाति के नाम से हुआ है। इसी प्रकार मत्स्य गणराज्य जो कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी में अस्तित्व में था उसका उद्भव मत्स्य जनजाति से हुआ माना जाता है। राजस्थान और मध्यप्रदेश में निवासरत मीणा जनजाति मत्स्य जनजाति के ही वंसज है। मीणाओं का विश्वास है कि इस संसार का मूल मत्स्य यानि मीन अर्थात मछली से जुड़ा हुआ है। मीणा लोग मत्स्यावतार को भगवान के अवतार के रूप् में पूजते हैं। राजस्थान के दौस जिले में मत्स्यावतार का बहुत बड़ा मंदिर भी है। भारत में आज भी कई एैसे क्षेत्र हैं जिसका नाम वहां के जनजाति के नाम पर है जैसे. मिजोरम - मिजो, नागालैण्ड- नागा, त्रिपुरा-त्रिपुरी, संथाल परगना- संथाल, हिमाचल प्रदेश का लाहोल, स्वाग्ला व किन्नौर वहां के लाहोला, स्वांगला व किन्नौरा जनजाति के नाम के आधार पर पड़ा।
परंतु आठवीं शताब्दी में मुगलों के आक्रमण के कारण छोटा नागपुर व अन्य क्षेत्रों के उराव, मुण्डा व हो जनजातियों तथा पश्चिम भारत के भाील जनजाति बड़ी मात्रा में आतंक के शिकार हुए। मध्यभारत के जबलपुर के पास गड़हा नामक गोंडवाना राज्य में लगभग 200 बर्षो तक शाासन करने वाले गोंड राजा दलपत शाह, रधुनाथ शाह का मुगलों के साथ लंबे संमय तक संधंर्ष हुआ आैंार अंतत्ः अठारवीं शताब्दी में गांेड राज्य का अंत हो गया।  मुगलों ने जब दक्षिण भारत की ओर आक्रमण किया तब उन्होंने उत्तर पश्चिम भारत के उद्यमी जनजाति बंजारों के पशुओं को अपने रसद के परिवहन के लिए उपयोग में लाने के लिए बाध्य किया गया। इस प्रकार जनजातियों की क्षीण होती शक्ति का फायदा उठाकर मुगलों ने बड़ी मात्रा में जनतातियों को इस्लाम धर्म में परिवर्तित किया। व्रिटिश शासनकाल में ब्रिटिशर्स ने बीहड़ जनजातीय क्षेत्रों में आक्रमण न कर पाने के कारण उन क्षेत्रों मंे मिशनरियों के द्वारा सास्कृतिक आक्रमण किया गया और जनजातीय क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में धर्म परिवर्तन किया गया जिसका खामियाजा हमें आज भी चुका रहे हैं।  
सन् 1941 में भारत में जनजातियों की कुल जनसंख्या 2 करोड़ 47 लाख क लगभग थी। आज वर्तमान में 2011 के संेसस के रजिस्टार जनरल ऑफ इंडिया के रिपोर्ट के आधार पर भारत की कुल जनसंख्या 1 अरब, 21 करोड़, 5 लाख, 69 हजार 5 सौ 73 है जिनमे से  जनजातियों की जनसंख्या 10 करोड़ 42 लाख, 81 हजार 34 है जो भारत की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है। भारत की जनजातियों के संदर्भ में विशेष बात यह है कि यहां पर भील जनजातियां सर्वाधिक है जिनकी कुल जनसंख्या 1 करोड़ 26 लाख, 89 हजार, 9 सौ 52 है, दूसरे स्थान पर गोंड जनजाति है जिसकी कुल जनसंख्या 1 करोड़ 5 लाख, 89 हजार, 4 सौ 22 है। तीसरे स्थान पर संथाल जनजाति का है जिसकी संख्या 58 लाख, 38 हजार 16 है वही चतुर्थ स्थान पर मीणा जनजाति है जिनकी संख्या 38 लाख 2 है।
भारत में 50 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या जिलों की बात करें तो वे कुल 90 जिले है जिनमें से छत्तीसगढ़ में 7 जनजाति जिले, मध्यप्रदेश में 6 जिले , ओडिसा में 8 जिले, झारखण्ड में 5 जिले तथा गुजरात में 5 जिले है वहीं भारत में 25 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक की जनसंख्या वाले जिले 62 है।  

प््रादेश प््रादेश की कुल जनसंख्या प््र.ादेश की कुल जनजातियों की जनसंख्या प््रादेश की जनजातियों का प्रतिशत प््रादेश के जनतातियों का साक्षरता का प्रतिशत देश की जनसंख्या का जनजाति प्रतिशत
छत्तीसगढ़ 2,55,45,199 78,22,902 30.62 प्रतिशत 59.1 प्रतिशत 7.50 प्रतिशत
मघ्यप्रदेश 7,26,26,809 1,53,16,784 21.09 प्रतिशत 50.6 प्रतिशत 14.69 प्रतिशत
महाराष्ट 11,23,74,333 1,05,10,213 10.08 प्रतिशत 65.7 प्रतिशत 9.35 प्रतिशत
आध्रप्रदेश 8,45,80,777 59,18,073 49.2 प्रतिशत
झारखण्ड 3,29,88,134 86,45,042 8.29 प्रतिशत 57.1 प्रतिशत 26.21 प्रतिशत
प्श्चिम बंगाल 9,12,76,115 52,96,953 57.9 प्रतिशत
गुजरात 6,04,39,692 89,17,174 8.55 प्रतिशत 62.5 प्रतिशत 14.75 प्रतिशत


भारत के जनजातियों के लिए शिक्षा एक केन्द्र बिंदु है जिस पर उनका विकास निर्भर करता है शिक्षा से ज्ञान का प्रसार होता है। ज्ञान आंतरिक बल देता है जो कि जनजातियों को शोषण व गरीबी से मुक्ति पाने के लिए बहुत ही आवश्यक है। वर्तमान समय में जनजातियों के शोषण व दयनीय स्थिति के लिए मुख्य रूप् से शिक्षा ही जिम्मेदार है। निरक्षरता से उत्पन्न अज्ञानता के कारण जनजाति लोग नयी आर्थिक सुअवसरों का लाभ नहीं उठा पाये। जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसके अंतर्गत आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेंत्रों में विकास के साथ ही विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में नये प्रवर्तनों के बारे में समुदाय को सूचित करता है। इस कारण शिक्षा जनजातियों के अत्यंत आवश्यक है।
ज्नजातियों के लिए शिक्षा की महत्ता को समझते हुए संविधान निर्माताओं ने संविधान के अनुच्छेद 15 (4) एवं 46 में अनुसूचित जनजातियों में शिक्षा के प्रसार के लिए विशेश प्रावधान किये गये है। अनुच्छेद 15( 4 )के अनुसार राज्य सरकार को किसी भी सामाजिक अथवा शैक्षणिक रूप् से पिछड़े वर्ग के नागरिकों के प्रगति के लिए अथवा अनुसूचित जाति जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार प्रदान करता है। संविधान के अनुच्छेद 46 में सामाज के कमजोर बर्गो विशेषकर अनुसुचित जाति जनजााति को विशेष रूप् से ध्यान में रखकर शैक्षणिक एवं आर्थिक लाभ पहुंचान का दिशा निर्देश राज्य सरकार को दिये है। परंतु रजिस्टार जनरल ऑफ इंडिया के द्वारा जारी किया गया है चौकाने वाले हैं कक्षा पहली से 12वीं तक सिर्फ 13.9 प्रतिशत जनजाति ही पहुंच पाता है। वहीं भारत की पहली से 10वीं तक के जनजातीय बालकों का डॉपआउट रेट 70.6 प्रतिशत है तथा बालिकाओं का 71.3 प्रतिशत है। जो कि चिंताजनक है। इसी तरह छत्तीसगढ़ के संदर्भ में महत्वपूर्ण सांख्यिकी निम्नानुसार है-
क्रमांक छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण संस्थान स्ंाख्या
1. प्राथमिक शाला 16941
2. मध्यमिक शाला 6202
3. हाई स्कूल 416
4. उच्चतर माध्यमिक विद्यालय 625
5. आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय 05
6. कन्या शिक्षा परिसर 05
7. ग्ुारूकुल परिसर 01
8. कन्या क्रीड़ा परिसर 13
9. एकलव्य आवासीय परिसर 08
10. प््राी मेटिक छात्रावास 1219
11. पोस्ट मेटिक छात्रावास 187
12. आश्रम शालाएं- प्राथमिक स्तर 1031
13. आश्रम शालाएं- माध्यमिक स्तर 79
शिक्षा राज्य एव ंकेन्द्र दोनो का विशय है तथा शिक्षा के प्रसार का मूल दायित्व राज्य सरकार को सौपा गया है। केन्द्र सरकार उच्च शिक्षा, अनुसंधान, वैज्ञानिक एवं तकनीकि शिक्षा के क्षेत्रे में सुविधाओं के समन्वय तथा मानक निर्धारण के लिए उत्तरदायी है। केन्द्र सरकार का मु,ख्य प्रयास अनुसूचित जनजातियों को मैटिक उपरांत छात्रवृति दिलवाना, बालक, बालिका छात्रवासों की स्थापना करवाना और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग केन्द्र का प्रबंध करवाना होता है कल्याण मंत्रालय द्वारा इस कार्यक्रम के लिए विषेश केन्द्रीय सहायता प्रदान करती है। शिक्षा मंत्रालय/एच आर डी द्वारा दी गई कुछ प्रमुख सुविधाओं के सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानो, क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेजों, मेडिकल कॉलेजों और केन्द्री विद्यालयों में 71/2 प्रतिशत जनजातियों के लिए तथा 15 प्रतिशत अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था प्रदान करती है। हालाकि पिछले वर्षों में जनजातियों की साक्षरता में वृद्धि हुई है लेकिन फिर भी हर साक्षरता के उस सामान्य स्तर तक नहीं पहुंच पाये है। रजिस्टार जनरल आफ इंडिया द्वारा जारी पिछले कुछ वर्षों के साक्षरता दर पर ध्यान दे तो पायेंगें कि-

वर्ष सभी सामाजिक समूहांे का प्रतिशत अनुसूचित जनजातियों का प्रतिशत
1961 28.3 प्रतिशत 8.53 प्रतिशत
1971 34.45 प्रतिशत 11.30 प्रतिशत 
1981 43.57 प्रतिशत 16.35 प्रतिशत
1991 52.21 प्रतिशत 29.60 प्रतिशत 
2001 64.84 प्रतिशत 47.10 प्रतिशत
2011 72.99 प्रतिशत 58.96 प्रतिशत


शिक्षा नीति में बदलाव के तहत अनु. जनजातियों के विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए नवोदय विद्यालय जैसी शिक्षण संस्थान स्थापित किये गये लेकिन 12वीं के प्ष्चात की व्यवस्था के लिए किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं किया गया जिससे प्रतिभा वहंी नष्ट होती जा रही है। 
शिक्षा की धीमी प्रगति के प्रमुख कारण निम्नानुसार है-
1. माता पिता के द्वारा अनदेखी-  गरीबी से त्रस्त माता पिता के लिए उनके बच्चों की शिक्षा एक विलासिता है, जिसका वहन वे बड़ी मुस्किल से कर पाते हैं। बच्चे जीवन यापन के लिये अपने माता पिता की सहायता करते है। जब माता पिता कृषि अथवा श्रमिक कार्य के लिए बाहर जाते हैं तो व्यस्क बच्चे अपने छोटे बच्चों की देखभाल करते है। गरीब माता पिता के बच्चों की शिक्षा की सुविधाआंे से बंचित किये जाने के लिए शिशु संरक्षण केन्द्र, शिशु सदन, बालवाडि़यों का जनजातीय क्षेत्रों में न होना एक बहुत बड़ा कारण है। 
2. शिक्षा की विषय वस्तु व पाठ्यक्रम - जनजातियेां की शिक्षा के पाठ्यक्रम को सावधानीपूर्वक तैयार करने की जरूरत है। अनुसूचित जनजातियों की सामाजिक सांस्कृतिक परिवेष पर ध्यान देना आवश्यक है। वर्तमान में शिक्षा की समस्या विषय वस्तु को जनजाति क्षेता्रें के लिए लागू किया गया है जो कि कई मामलों में विशेषकर आरंभिक स्तर पर तर्कसंगत नहीं है। इसलिए शिक्षा को सार्थक बनाने हेतु इस विषय पर पुनर्विचार करना आवश्यक है।
3. अपर्याप्त शैक्षणिक संस्थाएं व सहायक सेवाएं- जनजाति क्षेत्रों में शैक्षणिक संस्थानों, भोजन व आवास सुविधाओं की अपर्याप्तता से ग्रसित है। जहां संस्थान व स्कूल खोले भी गये हैं, वहां लगभग 40 प्रतिशत केन्द्र भवनहीन हैं। छात्रवृतियों, पुस्तक वैंकों आदि के रूप् में प्रोत्साहन जैसी सहायक सेवाएं व सामग्रियां बहुत ही नगण्य व अपर्याप्त है तथा सामान्यतः यह बच्चों को आकर्षित नहीं करते।
4. शिक्षकों की अनुपस्थिति- जनजाति क्षेत्रों में शिक्षकों की अनुपस्थिति शिक्षा को विपरीत रूप् से प्रभावित करने वाली एक प्रमुख समस्या है। शिक्षण संस्थाएं जनजाति क्षेत्रों में दूरस्त क्षेतो में स्थित होती है। शिक्षकों की उपस्थिति पर प्रभावी नियंत्रण रखना एक गंभाीर समस्या है। शिक्षक अपने उपर किसी पर्यवेक्षण केे न होने और जनजातियों की शिक्षा के लिए समर्पण की भावना की कमीं के कारण व सामान्यतः कई दिनों तक अनुपस्थित रहते हैं। बच्चे व माता पिता अपना समय व्यर्थ गंवाना सहन नहीं कर पाते और इसलिए निराष होकर सामान्यतः स्कूल शिक्षा से बंचित होकर बच्चे स्कूल छोड़ने पर बाध्य होते हैं।
5. शिक्षण का माध्यम- जनजातियों के लिए स्कूलों में शिक्षण का माध्यम एक कठिन समस्या है। स्वतंत्रता के 68 वर्षो के बाद भी हम जनजातियों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा नहीं दे पाये । जनजाति बच्चे स्कूल में उनके लिए पूणर््ातः अजनबी भाषाओं में दिये गये पाठों को सामान्यतः समझ नहीं पाते । संविधान के अनुच्छेद 350(क) के अनुसार प्राथमिक स्तर तक शिक्षण उनकी मातृभाषा में दिये जाने का प्रावधान है। राष्टपति को भी इस उद्वेष्य हेतु किसी भी राज्य को दिशा निर्देश जारी करने की शक्ति प्रदत्त है परंतु इस दिशा में अपेक्षित कदम नहीं उठाये गये।
6. शिक्षा नीति - जनजाति क्षेता्रं के अभी तक को स्पष्ट शिक्षा नीति नहीं बन पायी है विभिन्न समितियों व आयोगों के सिफारिशे और सुझाओं के बावजूद जनजाति क्षेता्रें के लिए कोई नीति लागू नही ं की गई है। कुछ राज्यों में जनजाति क्षेतों के शिक्षा विभाग के नियंत्रण में हैं तों कुछ राज्यों मे जनजाति कल्याण विभाग के अधीन जजाति क्षेत्रों के शैक्षणिक संस्थानों के संबंध में प्रशासनिक नीति के अभाव से जनजातियों के शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
7. शिक्षा की विषय वस्तु में जनजातियों की आवश्यकताओं व अभिलाषाओं को ध्यान रखा जाना चाहिए। 
8. प्राथमिक स्तर पर विषयों का चयन बडी सावधानी पूर्वक करना चाहिए, शिक्षा कार्योन्मुखी होना चाहिए। 
9. जनजाति शिक्षा के पाठ्यक्रमों में पारंपरिक स्थानीय कौशल, हस्तकलाओं का समावेश होना चाहिए।
10. जनजातियों को उन्हें अपने अधिकारों व कर्तव्यों को समझने के लिए प्राथमिक नागरिक शास्त्र भी पढ़ाया जाना चाहिए।
11. जनजाति क्षेत्रों में शैक्षणिक संस्थाओं को खोलने के लिए प्राथमिकता दी जानी चाहिए तथा इन क्षेत्रांे में स्कूल जाने के लिए 4 किलोमिटर से अधिक पैदल चलने वाले विद्यार्थियों के लिए छात्रावास जैसी सुविधाएं उपलब्ध करायी जानी चाहिए।
12. पाठ्यक्रम में जनजातियों के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को सम्मिलित किया जाना चाहिए। कम से कम प्राथमिक स्तर तक शिक्षा का माध्यम जनजाति भाषाओं में होना चाहिए माध्यमिक स्तर के बच्चों के लिए शिक्षण का माध्यम क्षेत्रीय अथव राज्य की भाषा होनी चाहिए।
13. शिक्षकों का चयन जनजातियों में से ही किया जाना चाहिए और समुचित संख्या मंे योग्य शिक्षक न मिलने की स्थिति में शैक्षणिक योग्यता में आवश्यक छूट भी दी जानी चाहिए। जनजातीय भाषा जानने वाले सामान्य शिक्षक का भी चयन किया जा सकता है।
14. जनजातीय क्षेत्रों में अधिकाधिक संख्या में बालवाड़ी, शिशु सदन, शिशु संरक्षण केन्द्र की स्थापना की जानी चाहिए। इन केन्द्रो पर उचित पौष्टिक आहार कार्यक्रमेां को भी क्रियान्वित किया जाना चाहिए जिससे न केवल जनजातीय बच्चों को पौष्टिक भोजन प्राप्त होगा अपितु उनमें स्वास्थ्य व संतुलित भोजन के बारे में जागरूकता पैदा होगी।
15. प्राथमिक स्तर के अघ्यापकों के लिए एक प्रभावी पर्यवेक्षण पद्धति का होना आवष्यक है। जहां आवष्यक हो वहां उन्हंे स्थानीय पंचायतेां के नियंत्रण में रखा जा सकता है।
16. छाता्रवासों की व्यवस्था में जनजातियों व स्वैच्छिक एजंेसियों की भी प्रभावी सहभागिता होनी चाहिए। 
17. जनजातिय क्षेता्रें में स्थापित विविध औद्योगिक व अन्य परियोजनाओं की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शैक्षणि शिक्षा व व्यवसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए उन्हंे सक्षम होना चाहिए। जनजातियों की आवश्यकताओं पर औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थाओं को भी ध्यान देना चाहिए प्रशिक्षण उपरांत सहायता भी प्रशिक्षण कार्यक्रम का एक अंग होना चाहिए।
18. जनजातियों में खेलकूद के प्रति वंशागत प्रतिभावान होते हैं इस क्षेत्र में उनकी प्रतिभा को प्रोत्साहन किया जाना चाहिए।

पारंपरिक लोककलाओं, लोकनृत्यो व लोकगीतों के विकास तथा संवर्धन हेतु हमारे विभिन्न विष्वविद्यालयों द्वारा संचालित पाठ्यक्रमों में स्थान देने की जरूरत है, तथा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी गोंडी, हल्बी, भतरी जैसी बोलियों को संरक्षित करने के आदिवासी भाषा व लोककला संस्थान स्थापित करने के प्रयास किये जाने की आवष्यकता है, क्योकि ये आदिवासी बोलियां, ये लोककलाएं, ये नृत्य, ये चित्रकला तथा मूर्तिकला हजारों वर्षों के अनुभवों को अपने में संचित तथा समाहित किये हुये हैं। सरकार द्वारा  आदिवासी लोककला संग्राहलयों, सांस्कृतिक केन्द्रों, लोकसंगीत नाटक अकादमी तथा लोककला वीथिका की स्थापना किये जाने की आवष्यकता है, जिससे लोगों में इन विलुप्त हो रही लोककलाओं के प्रति जागरूकता पैदा हो सके तथा साथ-साथ इसका भी ख्याल रखा जाना आवश्यक है कि बड़ी तेजी से उभरते महानगरीय संस्कृति की चकाचौंध का प्रभाव इन लोककलाओं पर न पडे । लोककलाओं को आज व्यवसाय का माध्यम बनाने हेतु भी आवष्यक कदम उठाने की जरूरत है जिससे इन विधाओं से जुड़े लोककलाकारों को आजीविका के साधन उपलब्ध हो सकेंगे तभी देश का सही मायने में विकास हो पायेगा। 
आज अगर हम विकास की बात करते हैं तो उस विकास में सिर्फ सिमित लोगों का विकास ही शामिल हैं, संपन्नता की पहुंच सिर्फ कुछ ही लोगों तक सिमित है देष की आजादी के 68 वर्ष पूर्ण करने के बाद भी साक्षरता का लक्षित दर अभी तक हासिल नही किया जा सका हैं ।

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