Saturday, November 22, 2025

चार घोड़े चालीस मील

वो खंजर भी देखा, वो मंजर भी देखा, 
वो वीरों का सैलाब था, वो रुकता कहाँ था। 
नहीं मिटा सके, तेरे मिटाने से तनिक भी। 
हमने वो लहू का, समंदर भी देखा।। 

लहू से था लतपथ, रास्ता भी लहू था, 
लहू थी वो गलियाँ, वो चौक भी लहू था। 
छोटी सी धोती में, वो गोरों को तरेरता, 
वो देख भी रहा था, तो आँख भी लहू था। 
पेड़ पर जो लटका, पर झुकता नहीं था। 
वही था, वही था, ये तिलका वही था।। 
वो खंजर भी देखा, वो मंजर भी देखा, 
वो वीरों का सैलाब था, वो रुकता कहाँ था। 
नहीं मिटा सके, तेरे मिटाने से तनिक भी। 
हमने वो लहू का, समंदर भी देखा।। 

हमें याद है, हम ये भूले नहीं हैं, 
सिक्खों की वीरता पर, डायर की वो गोलियां
जलिया के बागों में, खून की वो होलियाँ
सन् तेरह की होली को, हमनें भुलाया कहाँ हैं। 
लहू के निशानों को, हमने मिटाया कहाँ है। 
वो खंजर भी देखा, वो मंजर भी देखा, 
वो वीरों का सैलाब था, वो रुकता कहाँ था। 
नहीं मिटा सके, तेरे मिटाने से तनिक भी। 
हमने वो लहू का, समंदर भी देखा। 

मानगढ़ की पहाड़ी पर, आस्था जो चली थी
भीलों के हुज़ूमों में, भिलनियाँ भी खड़ी थी। 
गोरों की तोपों ने  आगें जो उगली। 
आगस्टस की बंदूक से गोली जो निकली। 
पड़ी थी वहाँ बहनें, माताएँ पड़ी थी। 
लाशों के ढेर  में वो बिखरी पड़ी थी। 
भीलों की धरती पर आज मौत फिर खड़ा था। 
पड़ी थी जो लाशें, उसमें दुधमुहाँ पड़ा था। 
उसमें दुधमुहाँ पड़ा था।। 

मानगढ़ की पहाड़ी पर, आस्था का था वो मेला। 
भीलों के हुज़ूमों में था, वीरों का वो रेला। 
गोरों की तोपों ने जब, उगली थी आगें। 
आगस्टस की गोली ने, रोकी थी सांसें। 
पड़ी थी जो लाशें, उसमें दुधमुहाँ पड़ा था। 
पड़ी थी जो लाशें उसमें दुधमुहाँ पड़ा था। 
वो खंजर भी देखा, वो मंजर भी देखा, 
वो वीरों का सैलाब था, वो रुकता कहाँ था। 
नहीं मिटा सके, तेरे मिटाने से तनिक भी। 
हमने वो लहू का, समंदर भी देखा।। 

द्वार भी खुले थे, बोले थे फिर भी, 
आती थी उसमें, हजारों की टोलियाँ। 
भागे नहीं थे, आखिर में फिर भी, 
भीलों ने खेली थी, खूनों की होलियाँ। 
भीलों ने खेली थी, खूनों की होलियाँ।। 
वो खंजर भी देखा, वो मंजर भी देखा, 
वो वीरों का सैलाब था, वो रुकता कहाँ था। 
नहीं मिटा सके, तेरे मिटाने से तनिक भी। 
हमने वो लहू का, समंदर भी देखा।। 

रांची के जेलों की यातना, हमें याद है। 
चालकंद की वो दुष्टता, हमें अब भी याद है। 
याद है हमें, हमारी मातृभूमि को हमसे छीनना। 
पर डिगा कहाँ सके तुम, डिगाने से तनिक भर, 
वो खंजर भी देखा, वो मंजर भी देखा, 
वो वीरों का सैलाब था, वो रुकता कहाँ था। 
नहीं मिटा सके, तेरे मिटाने से तनिक भी। 
हमने वो लहू का, समंदर भी देखा।। 

चूड़ियों की खनक, हम सभी ने सुनी है। 
पायलों की झंकार भी, हम सभी ने सुना है। 
सुनाता हूँ आज मैं, जो कभी ना सुना है। 
जेलों के बेड़ियों में, होती है खनक भी, 
बिरसा के बेड़ियों की वो, खनक हमने सुनी है।।
बिरसा के बेड़ियों की वो, खनक हमने सुनी है।।
वो खंजर भी देखा, वो मंजर भी देखा, 
वो वीरों का सैलाब था, वो रुकता कहाँ था। 
नहीं मिटा सके, तेरे मिटाने से तनिक भी। 
हमने वो लहू का, समंदर भी देखा।। 

पड़ा था जब सूखा, उस सोने के खान में। 
गोरों ने मांगा था था, फिर भी लगान में। 
लटका के रखा था, दस दिन तक उसको। 
कर दिया न्यौछावर
इस मिट्टी के खातिर उसने अपना शरीर......... 
प्रजा को बचाने जो निकला था वीर। 
प्रजा को बचाने जो निकला था वीर।। 
वो खंजर भी देखा, वो मंजर भी देखा, 
वो वीरों का सैलाब था, वो रुकता कहाँ था। 
नहीं मिटा सके, तेरे मिटाने से तनिक भी। 
हमने वो लहू का, समंदर भी देखा।। 

लड़ा था मेरा देश, सारा समाज भी लड़ा था। 
गोंड भी लड़े थे, मुंडा भी लड़ा था। 
संथाल भी लड़े थे, परलकोट भी लड़ा था। 
रमोतिन मढ़ीया भी लडी थी, धुरुआ राम भी लड़ा था। 
जगरतन भरता भी लड़ा था, वीर झाड़ा सिरहा भी लड़ा था। 
हरचंद् नायक भी लड़ा था, सुखदेव पातर हलबा भी लड़ा था। 
चिंतु हलबा भी लड़ा था, डेबरी धुर लड़ी थी। 
लड़ा था वो गुंडाधुर भी, मेरे देश के सम्मान में। 
बस्तर के वो वीर थे, हो गये शहीद वो, 
महान भूमकाल में, महान भूमकाल में।। 
वो खंजर भी देखा, वो मंजर भी देखा, 
वो वीरों का सैलाब था, वो रुकता कहाँ था। 
नहीं मिटा सके, तेरे मिटाने से तनिक भी। 
हमने वो लहू का, समंदर भी देखा।। 

एक था महान हुआ, बस्तर की जमीन पर, 
आंच को ना आने दिया, पुरखों की जमींर पर। 
बचा के रखा था जिसने, परलकोट की उस थाती को, 
ठाकुर गैन्दसिंग था नाम जिसका, 
छूने ना दिया अंतिम सांस तक जिसने, 
बस्तर की उस पवित्र माटी को। 
बस्तर की उस पवित्र माटी को।। 
वो खंजर भी देखा, वो मंजर भी देखा, 
वो वीरों का सैलाब था, वो रुकता कहाँ था। 
नहीं मिटा सके, तेरे मिटाने से तनिक भी। 
हमने वो लहू का, समंदर भी देखा।।