Saturday, November 8, 2008

आदिवासी लोकमाध्यमों को बचाना जरूरी है.

एक प्रमुख संचार वैज्ञानिक मार्शल मैक्लाहूनके इस कथन "मध्यम ही संदेश है." में निहित अर्थो को सही ढंग से समझनेकी आज सबसे ज्यादा जरूरत है। वर्तमान समय की अगर बात करें तो मध्यमभी किसी राष्ट्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है। पारम्परिक मध्यम ही एक ऐसा मध्यम है जिसकी जधे आजभी कोसो दूर तक फैली है, जरूरत है तो बस इनके महत्वा को समझने की , इनके संरक्षण की , क्योंकि दिनों-दिन हम पारंपरिक रीति-रिवाजो, आदिवासी लोक्कालाओ से दूर होते चले जा रहें है।

अतः आज विलुप्त हो रहे इन लोक्मध्यम जैसे नाचा, पंडवानी ,गम्मत, धन्दामी, मांदरी, रेला, गोधना तथा लोककला जैसे कश्ताकला, धोकर शिल्पकला, आदिवासी चित्रकला आदि को तथा इनसे जुधी तमाम विधाओं को सहेजने की सबसे ज्यादा जरूरत है, क्योंकि लोक्कालाओ को बचाना है और उन्हें जीवनोपयोगी बनाना है तो उनके साथ जुधे संस्कारों को भी बचाना होगा तभी लोककलाओं को उनकी आत्मा के साथ बचाया जा सकता है। लोक्मध्यम एक तरह से अपना महत्व रखते है, और संचार के महत्त्वपूर्ण सेतु मने जाते है, जिस प्रकार भासा सामाजिक समूह को संगठित करती है, ठीक उसी तरह पारंपरिक मध्यम अपने समग्र रूप में भासा, कला और अभिव्यक्ति के रूप में सामाजिक समूह को संगठित करने का काम करती है, इसलिए इन बहुमूल्य विधाओं को ज्यादा-से ज्यादा सहेजने की जरूरत है।

दाल से टूटा पत्ता कहीं का नही होता, किंतु दलगिरा बीज कई संभावनाओं को जन्मा देता है। लोककला और पारंपरिक आदिवासी madhyam संचार क्रांति के दौर में बीज रूप में हमारे सामने है, बस इन्हे पल्लवित व पोषित करने की jimmewari हम सभी की होनी चाहिए, तभी पारंपरिक आदिवासी मध्यम हमारे लिए विकास के बीज साबित होंगे।

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